Book Title: Divsagar Pannatti Painnayam
Author(s): Punyavijay, Suresh Sisodiya, Sagarmal Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 64
________________ दिगम्बर परम्परा मान्य आगम तुल्य ग्रन्थ [४] (i) उवरिम्मि माणुसुत्तरगिरिणो बावीस दिव्वकूडाणि । पुव्वादि चउदिसासुं पत्तेक्कं तिष्णि तिणि चेट्ठति ॥ ( तिलोय पण्णत्त, ४ / २७६५ ) [4] (ii) तत्प्रदक्षिणवृत्तानि प्राच्यादिषु दिशासु च । इष्टदेशनिविष्टानि कूटान्यष्टादशाचले ॥ [७] (iii) त्रीणि त्रीणि तु कूटानि प्रत्येकं दिक्चतुष्टये । पूर्वयोर्विदिशोश्चैव तान्याष्टादश पर्वते ॥ ( लोकविभाग, श्लोक ३/ ( हरिवंशपुराण, श्लोक ५/५९९ ) J वेरुलिअसुमगभा उगंधी तिष्णि पुब्वदिब्भाएं। रूजगो लोहियअंजणणामा दक्खिणविभागम्मि अंजणमूलं कणयं रजदं णामेहि पच्छिमदिसाएँ फsिहं कपवालाई कूड़ाई उत्तरदिसाएँ । तवणिज्जरयगणामा कडाई दोण्णि वि हुदासणदिसा ईसाणदिसाभाए पहंजणो वज्जणामो त्ति एक्को च्चिय वेलंबो कडो चेटू दि मारुददिसाए । णइरिदिदिसाविभागे णामेणं सव्वरयणो त्ति ।। पुव्वादिच उदिसासु वण्णिदकूडाण अग्गभूमीसु । एक्केक्aसिद्ध कूडा होंति वि मणुसुत्तरे सेले ॥ (तिलोयपण्णत्ति, ४/२७६६-२७७० ) [६] (i) गिरिउदयच उब्भागो उदयो कूडाण होदि पत्तेक्कं । तेत्तियमेत्तो रूंदो मूले सिहरे तदद्धं च ॥ मूलसिहराण रूंद मेलिय दलिदम्मि होदिजं लद्धं । पत्तेक्कं कूडा मज्झिमविक्खंभपरिमाणं ॥ (ii) तानि पञ्चशतोत्सेधमूलविस्तारवन्ति तु । शते चार्द्ध तृतीये द्वे विस्तृतान्यपि चोपरि ॥ ( तिलोयपण्णत्त, ४ / २७७१-२७७२ ) Jain Education International ( हरिवंशपुराण, श्लोक ५/६०० ) रत्नाख्ये पूर्वदक्षिणे । निषधस्पृष्टभागस्ये वेणुदेव इति ख्यातः पन्नगेन्द्रो वसत्यसौ । नीलाद्रिस्पृष्टभागस्ये पूर्वोत्तर दिगावृते । ! ( हरिवंशपुराण, श्लोक ५/६०७-६०८ ) For Private & Personal Use Only ५५ www.jainelibrary.org

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