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द्वीपसागरप्रज्ञप्ति प्रकीर्णक
(१८३) वहाँ द्वार के समान विस्तार वाले तथा पल्योपम कार्यस्थिति वाले देवोंके चार विमान हैं - १. ( अशोक देव का ) अशोकावतंसक, २. (सप्तपर्ण देव का ) सप्तपर्णावतंसक, ३. (चंपकदेव का ) चम्पकावतंसक और ४. ( चूत देव का ) चूतावतंसक ।
(१८४-१८५) चमरचंचा राजधानी के बहुमध्य भाग में सोलह हजार ( योजन) लम्बी-चौड़ी तथा आधा योजन मोटी वनखण्डों से घिरी हुई श्रेष्ठ पद्मवेदिका है । उस चमरचंचा नगरी के बहुमध्य भाग में सर्वाधिक सुन्दर प्रासाद है ।
(१८६) वहाँ द्वार के समान परिमाण वाला वह प्रासाद चारों तरफ से प्रासादों की पंक्तियों से घिरा हुआ है ।
(१८७) वह प्रासाद एक सौ पच्चीस योजन लम्बा, उसका आधा अर्थात् साढ़े बासठ योजन चौड़ा तथा उसका आधा अर्थात् सवा इकतीस योजन ऊँचा है ।
(१८८-१८९) प्रासाद की पूर्व-उत्तर दिशा में सुधर्मा सभा है उसके बाद चैत्यगृह, उपपात सभा और हृद (झील) है । वहाँ अभिषेक सभा, अलंकार सभा और व्यवसायसभा है जो छत्तीस (योजन ) ऊँची, पचास (योजन ) लम्बी और लम्बाई की आधी अर्थात् पच्चीस योजन चौड़ी हैं ।
(१९०) सुधर्मा सभा की तीन दिशाओं में आठ योजन ॐचे तीन द्वार हैं, उनकी एवं प्रवेश मार्ग की चौड़ाई चार योजन है ।
(१९१) उन (द्वारों) के आगे मुखमण्डप' हैं और उनमें प्रेक्षागृह' हैं प्रेक्षागृहों के मध्य में रमणीय अक्षवाटक ' आसन हैं ।
(१९२ ) प्रेक्षागृहों के आगे स्तूप हैं, उन स्तूपों की चारों दिशाओं में एकएक पीठिका है । जिन पर एक-एक जिनप्रतिमा स्थित है ।
(१९३) स्तूपों के आगे जो पीठिकाएँ हैं उन पर चैत्यवृक्ष हैं। चैत्यवृक्षों के आगे मणिमय पीठिकाएँ हैं ।
१. देवालय आँगन को 'मुखमण्डप' कहा गया है ।
२. रंगभूमि के सामने का वह स्थान जहाँ पर प्रेक्षकगण बैठते हैं, 'प्रेक्षागृह'' कहलाता है ।
३. प्रेक्षकों के बैठने का आसन 'अक्षवाटक' कहलाता है ।
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