Book Title: Divsagar Pannatti Painnayam Author(s): Punyavijay, Suresh Sisodiya, Sagarmal Jain Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit SamsthanPage 62
________________ दिगम्बर परम्परा मान्य आगम तुल्य ग्रन्थं [१] (i) कालोदयजगदीदौ समतदो अट्रलक्खजोयणया। गंतूणं तं परिदो परिवेढदि माणुसुत्तरो सेलो ॥ (तिलोयपत्ति , ४/२७४८ ) (ii) मानुषक्षेत्रमर्यादा मानुषोत्तरभूभृता । परिक्षिप्तस्तु तस्याः पुष्करार्द्धस्ततो मतः ।। (हरिवंशपुराण, श्लोक ५/५७७ ) (i) पुष्करद्वीपमध्यस्थः प्राकारपडिमण्डलः । मानुषोत्तरनामा तु सौवर्णः पर्वतोत्तमः॥ (लोकविभाग, श्लोक ३/६६ ) [२] (i) तग्गिरिणो उच्छेहो सत्तरससयाणि एक्कवीसं च । तीसब्भहिया जोयणचउस्सया गाढमिगिकोसं ।। (तिलोयपण्णत्ति , ४/२७४९ ) (ii) योजनानां सहस्रं तु सप्तशत्येकविंशतिः । उच्छायः सच्छियस्तस्य मानुषोत्तरभूभृतः ।। सक्रोशोऽपि च सत्रिंशदवगाहश्चतुः शती। (हरिवंशपुराण, श्लोक ५/५९१-५९२) (iii) शतं सप्तदशाभ्यस्तमेकविंशमथोच्छितः। अन्तश्छिन्नतटो बाह्यं पाश्वं तस्य क्रमोन्नतम् ।। (लोकविभाग, श्लोक ३/६७) [३] (1) जोयणसहस्समेक्कं बावीसं सगसयाणि तेवीसं । चउसयचउवीसाइं कमरूंदा मूलमज्झसिहरेसु॥ (तिलोयपण्णत्ति, ४/२७५०) () द्वाविंशत्या सहस्र तु मूलविस्तार इष्यते । त्रयोविंशतियुक्तानि मध्ये सप्त शतानि तु । विस्तारोऽस्योपरि प्रोक्तश्चतुर्विशाश्चतुःशती ।। (हरिवंशपुराण, श्लोक ५/५९२-५९३ ) (iii) मूले सहस्र द्वाविंशं चतुर्विशं चतुर्विशं चतुःशतम । ___ अग्रे मध्ये च विस्तारस्त [६] द्वयामिति स्मृतः ।। ( लोकविभाग, श्लोक ३/६८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142