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दीवसागरपाणतिपइण्णय
चमरचंचा राजधानी आती है। द्वीपसागर प्रज्ञप्ति तथा राजप्रश्नीयसूत्र में चमरचंचा राजधानी के प्रासादों की लम्बाई १२५ योजन, चौड़ाई ६२ योजन तथा ऊँचाई ३१३ योजन मानी गई है।
सुधर्मा समा की तीन दिशाओं में आठ द्वार द्वीपसागर प्रज्ञप्ति, राजप्रश्नीयसूत्र तथा जीवाजीवा भिगम में समान रूप से माने गये हैं, अन्तर मात्र यह है कि द्वीपसागर प्रज्ञप्ति में उन द्वारों का प्रवेशमार्ग और विस्तार चार योजन माना गया है। राजप्रश्नीयसूत्र में उन द्वारों की ऊँचाई सोलह योजन तथा प्रवेशमार्ग और चौड़ाई आठ योजन कही गई है जबकि जीवाजीवाभिगम में उन द्वारों की ऊँचाई दो योजन तथा चौड़ाई और प्रवेश मार्ग एक योजन का कहा गया है। द्वीपसागर प्रज्ञप्ति में जिनअस्थियों, जिनप्रतिमाओं तथा जिनमन्दिरों का जो विवरण उल्लिखित है वह राजप्रश्नीयसूत्र तथा जीवाजीवाभिगम में अधिक विस्तारपूर्वक निरू पित है। __ प्रस्तुत तुलनात्मक विवरण से स्पष्ट होता है कि पर्वत, शिखर के नामों एवं विस्तार परिमाण आदि में कहीं किंचित मतभेद को छोड़कर सामान्यतया जैनधर्म की सभी परम्पराओं में मध्यलोक और विशेषरूप से मनुष्य क्षेत्र के आगे के द्वीप समुद्रों के विवरण में समानता परिलक्षित होती है । विवरणगत समानता होते हए भी इन ग्रन्थों में भाषागत और शैलीगत भिन्नता हैं। इस आधार पर मात्र यही कहा जा सकता है कि इन सभी ग्रन्थों का आधार मूल में एक ही रहा होगा। यद्यपि इन ग्रन्थों की विषयवस्तु एवं रचनाकाल से एक क्रम स्थापित किया जा सकता है तथापि यह कहना अत्यन्त कठिन है कि किस ग्रन्थ की कितनी विषयवस्तु दूसरे अन्य ग्रन्थों में गई है। ___ श्वेताम्बर परम्परा में मध्यलोक सम्बन्धी विवरण सर्वप्रथम अंग आगमों में स्थानांगसूत्र और भगवतीसूत्र में, उपांग साहित्य में-राजप्रश्नीयसूत्र, जीवाजीवाभिगमसूत्र, सूर्यप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि में मिलते हैं। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति जम्बूद्वीप एवं लवण समुद्र का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करती है। धातकीखण्ड आदि का विवरण स्थानांग और सूर्यप्रज्ञप्ति में मिलता है, किन्तु उनकी अपेक्षा. जोवाजीवाभिगम में यह विवरण अधिक व्यवस्थित व क्रमबद्ध रूप से निरुपित है । मनुष्य क्षेत्र के बाहर का विवरण मुख्य रूप से स्थानांगसूत्र और जीवाजीवाभिगम में पाया जाता है। जीवाजीवाभिगम की अपेक्षा भी द्वीपसागरप्रज्ञप्ति में यह
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