Book Title: Divsagar Pannatti Painnayam
Author(s): Punyavijay, Suresh Sisodiya, Sagarmal Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 118
________________ द्वीपसागरप्राप्ति प्रकीर्णक (१५४) इसी क्रम में भद्रा, सुभद्रा, कुमुदा, पुण्डरीकिणी, चक्रध्वजा, सत्या, सर्वा और वजध्वजा है।' (१५५) इसी प्रकार नन्दा आदि नगरियों को परिवेष्टित करते हुए उत्तर दिशा में ईशान इन्द्र और सामानिक देवों के रमणीय रतिकर पर्वत हैं। ( १५६-१६५. जम्बूद्वीप आदि द्वीपों और ___ समुद्रों के अधिपति देव ) (१५६-१६०) जम्बूद्वीप का अधिपति देव अनादत है और लवणसमुद्र का अधिपति देव सुस्थित है। इसके पश्चात् अन्य द्वीप-समुद्रों में अनुक्रम णियणियदीउवहीणं उवरिमतलसंठिदेसु णयरेसु। बहुविहपरिवारजुदा कीडते बहुविणोदेणं ॥ ५० ॥ एक्कपलिदोवमाऊ पत्तेक्कं दसघणणि उत्तुंगा। भुजते विविहसुहं समचउरस्संगसंठाणा ।। ५१ ॥ जंबूदीवाहितो अट्टमओ होदि भुवणविक्खादो।। गंदीसरो ति दीओ गंदीसरजलिहिपरिखित्तो ।। ५२ ॥ तिलोयपण्णत्ती महाधिकार ५ पत्र ५३५ । "द्वीपस्य प्रथमस्यास्य व्यन्तरोऽनादरः प्रभुः । सुस्थिरो लवणस्यापि प्रभास-प्रियदर्शनी ॥ २४ ॥ कालश्चैव महाकालः कालोदे दक्षिणोत्तरौ । पद्मश्च पुण्डरीकश्च पुष्कराधिपती सुरौ ॥ २५ ॥ चक्षुष्मांश्च सुचक्षुश्च मानुषोत्तरपर्वते ।। द्वौ द्वावेवं सुरी वेद्यो द्वीपे तत्सागरेऽचि च ॥ २६ ॥ श्रीप्रभश्रीधरी देवी वरुणो वरुणप्रभः। मध्यश्च मध्यमश्चोभौ वारुणीवरसागरे ॥ २७ ॥ पाण्ड(ण्डु)रः पुष्पदन्तश्च विमलो विमलप्रभः। सुप्रभस्य (श्च) घृताख्यस्य उत्तरश्च महाप्रभः ॥ २८ ॥ कनकः कनकाभश्च पूर्णः पूर्णप्रभस्तथा । गन्धश्चान्यो महागन्धो नन्दि नन्दिप्रभस्तथा ।। २९ ।। भद्रश्चैव सुभद्रश्च अरुणश्चारुणप्रभः। सुगन्धः सर्वगन्धश्च अरुणोदे तु सागरे ।। ३० ॥ एवं द्वीपसमुद्राणां द्वौ द्वावधिपती स्मृतौ । दक्षिण प्रथमोक्तोत्र द्वितीयश्चोत्तरापतिः ।। ३१ ॥" लोकविभाग विभाग ४ पत्र ७५ । १. मूल गाथा से स्पष्ट नहीं हो रहा है कि ये नाम किनके हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142