Book Title: Divsagar Pannatti Painnayam Author(s): Punyavijay, Suresh Sisodiya, Sagarmal Jain Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit SamsthanPage 20
________________ भूमिका है दिगम्बर परम्परा में परिकर्म के अन्तर्गत जो पाँच ग्रन्थ समाहित किये गये हैं उन्हें श्वेताम्बर परम्परा पांच प्रज्ञप्तियाँ कहती है। षट्खण्डागम को धवला टीका में कहा गया है कि द्वीपसागरप्रज्ञप्ति नामका परिकर्म बावन लाख छत्तीस हजार पदों के द्वारा उद्धारपल्य से द्वीप और समुद्रों के प्रमाण तथा द्वीप-सागर के अन्तर्भूत नानाप्रकार के दूसरे पदार्थों का वर्णन करता है।' षट्खण्टागम की धवला टीका का समय ई० सन् की नवों शतो का पूर्वार्ध माना जाता है । इससे यह प्रतिफलित होता है कि धवला के लेखक को इस ग्रन्थ को सूचना अवश्य थी। यद्यपि यह कहना कठिन है कि उनके सामने यह ग्रन्थ उपस्थित था अथवा नहीं। वस्तुतः परिकर्म में जिन पाँच ग्रन्थों का उल्लेख दिगम्बर परम्परा मान्य ग्रन्थों में मिलता है वे पाँचों ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा में आज भी मान्य एवं उपलब्ध हैं। उनमें से व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवती) को पांचवें अंग आगम के रूप में तथा सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति को उपांग के रूप में और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति को प्रकीर्णक ग्रन्थ के रूप में मान्य किया गया है। संभवत: धवलाटीकाकार ने भी इन ग्रन्थों का उल्लेख अनुश्रुति के आधार पर ही किया है। उसकी इस अनुश्रुति का आधार भी वस्तुतः यापनीय परम्परा रही है, क्योंकि वह परम्परा इन ग्रन्थों को मान्य करती थीं। दृष्टिवाद के पाँच अधिकार और उसमें भी परिकर्म अधिकार के पाँच भेदों की जो चर्चा यहाँ की गई है उसकी विशेषता यह है कि उसमें जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि के साथ-साथ व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) को भी परिकर्म का विभाग माना गया है। यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा में व्याख्याप्रज्ञप्ति को पाँचवा अंग आगम माना जाता है, किन्तु जब भी पंचप्रज्ञप्ति नामक ग्रन्थों की चर्चा का प्रसंग आया तब व्याख्याप्रज्ञप्ति को उसमें समाहित किया गया। ईस्वी सन् १३०६ में निर्मित विधिमार्गप्रपा नामक ग्रन्थ में आचार्य जिनप्रभ ने एक मतान्तर का उल्लेख करते हए लिखा है "अण्णे पुण चंदपण्णत्ति सूरपण्णत्तिं च भगवई उवंगे भणंति । तेसि मएण उवासगद साईण पंचण्ह-मंगाणमुवंगं निरयावलियासुयक्खंधो।" अर्थात् कुछ आचार्यों १. दीवसायरपण्णत्ती बावण्ण-लक्ख-छत्तीस-पद-सहस्से हि उद्धारपल्ल पमाणेण दीव-सायर-पमाणं अण्णं पि दीव-सायरंतब्भूदत्थं बहुभेयं वण्णेदि । (षट्खण्डागम, १/१/२ पृष्ठ १०९ )। २. विधिमार्गप्रभा, पृ० ५७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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