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दीवसागरपण्णत्तिपइण्णयं भिन्न आचार्य भिन्न-भिन्न मत रखते थे और अध्येताओं को उनका परिचय दे दिया जाता था। यहाँ अधिक विस्तृत चर्चा नहीं करके केवल एकदो मान्यताओं की ही चर्चा की जा रही है-त्रिलोकप्रज्ञप्ति में देवलोकों की संख्या १२ और १६ मानने वाली दोनों ही मान्यताओं का उल्लेख हुआ है। इसी प्रकार महावीर के निर्वाणकाल को लेकर भी जो विभिन्न मान्यताएँ थीं, उनका उल्लेख भी इस ग्रन्थ में हुआ है। इससे यही फलित होता है कि त्रिलोकप्रज्ञप्ति के रचनाकाल तक सम्प्रदायगत तात्त्विक मान्यताएँ सुनिश्चित और सुस्थापित नहीं हो पाई थी। यद्यपि त्रिलोकप्रज्ञप्ति में पर्याप्त प्रक्षिप्त अंश भी है फिर भी इसमें सन्देह नहीं किया जा सकता कि यह मूल ग्रन्थ प्राचीन है । सामान्यतः विद्वानों ने त्रिलोकप्रज्ञप्ति का काल वीर निर्वाण के १००० हजार वर्ष पश्चात् ही निश्चित किया है क्योंकि उस अवधि के राजाओं के राज्यकाल का उल्लेख इस ग्रन्थ में मिलता है । त्रिलोकप्रज्ञप्ति का रचनाकाल ६ठीं शताब्दो से ११. .वीं शताब्दी के मध्य कहों भी स्वीकार करें, किन्तु इतना निश्चित है कि इसकी अपेक्षा द्वीपसागरप्रज्ञप्ति प्राचीन है क्योंकि इसकी रचना पाँचवीं शताब्दी के पूर्व हो चुकी थी।
द्वीपसागरप्रज्ञप्ति के उल्लेख हमें स्थानांगसूत्र से लेकर षट्खण्डागम की धवला टीका तक में निरन्तर रूप से मिलते हैं । स्थानांगसूत्र और नन्दीसूत्र में उसके उल्लेखों से इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि कम से .कम वो० नि० सं० ९८० में हुई इन आगम ग्रन्थों की अन्तिम वाचना के - समय तक यह ग्रन्थ अवश्य ही अस्तित्व में आ चुका था । अतः द्वोपसागरप्रज्ञप्ति का रचनाकाल वी०नि० सं०९८० और महावीर निर्वाण ईस्वी पूर्व ५२७ मानने पर ईस्वी सन् ४५३ अर्थात् ईस्वी सन् की पांचवीं शती का उत्तरार्द्ध मानना होगा। यह इस ग्रन्थ के रचनाकाल की निम्नतम सीमा है, किन्तु इससे पूर्व भी इस ग्रन्थ की रचना होना संभव है। क्योंकि स्थानांगसूत्र में हमें सबसे परवर्ती उल्लेख महावीर के संघ में हुए नौ गणों का मिलता है किन्तु ये सभी गण भी ईस्वी सन् की द्वितीय शताब्दी तक अस्तित्व में आ चुके थे । पुनः स्थानांगसूत्र में जिन सात निह्नवों की चर्चा है, उनमें बोटिक निहव का उल्लेख नहीं है। अन्तिम सातवाँ निह्नव वी० नि० सं० .५८४ में हुआ था जबकि बोटिकों की उत्पत्ति वी० नि० सं० ६०९ अथवा उसके पश्चात् बतलाई गई है। बोटिक निह्नव का उल्लेख स्थानांगसूत्र में नहीं होने से यह मान सकते है कि स्थानांगसूत्र वी० नि० सं० ६०९ के पूर्व की रचना है और उस अवधि के पश्चात्
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