Book Title: Divsagar Pannatti Painnayam Author(s): Punyavijay, Suresh Sisodiya, Sagarmal Jain Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit SamsthanPage 29
________________ २० दीवसागरपष्ण त्तिपइण्णयं परिधि अधोभाग तथा शिखर-तल पर अधिक किन्तु मध्यभाग में कम बतलाई गयी है । यद्यपि पर्वत के सन्दर्भ में ऐसी कल्पना करना उचित नहीं है कि उसकी अधोभाग तथा शिखर-तल की परिधि एवं विस्तार अधिक हो तथा उसकी मध्यवर्ती परिधि एवं विस्तार कम हो, किन्तु ग्रन्थ में आगे यह भी कहा गया है कि तिगिञ्छि पर्वत का मध्यवर्ती भाग उत्तम वस्त्र जैसा है ( १६६-१७१ ) इस आधार पर तिगिञ्छि पर्वत का यही आकार बनता है । तिगिञ्छि पर्वत को रत्नमय पद्मवेदिकाओं, वनखण्डों तथा अशोकवृक्षों से घिरा हुआ कहा है ( १७२-१७३ 1 तिगिञ्छि पर्वत की दक्षिण दिशा की ओर चमरचंचा राजधानी कही गई है। इस राजधानी का विस्तार एक लाख योजन तथा परिधि तीन लाख योजन मानी गई है। साथ ही यह भी माना गया है कि यह राजधानी भीतर से चौरस और बाहर से वर्तुलाकार है । आगे की गाथाओं में चमरवंचा राजधानी के स्वर्णमय प्राकारों, दरवाजों, राजधानी के प्रवेश मार्गों तथा देव विमानों का विस्तार परिमाण उल्लिखित है ( १७४-१८६ ) । ग्रन्थ में चमरचंचा राजधानी के प्रासाद की पूर्व-उत्तर दिशा में सुधर्मासभा मानी गई है। उसके बाद चैत्यगृह, उपपातसभा, हद, अभिषेक सभा, अलंकार सभा और व्यवसाय सभा का वर्णन किया गया है ( १८७ - १८८ ) । सुधर्मा सभा की तीन दिशाओं में आठ योजन ऊँचे तथा चार योजन चौड़े तीन द्वार माने गये हैं । उन द्वारों के आगे मुखमण्डप, उनमें प्रेक्षागृह और प्रेक्षागृहों में अक्षवाटक आसन होना माना गया है । प्रेक्षागृहों के आगे स्तूप तथा उन स्तूपों की चारों दिशाओं में एक-एक पीठिका है । प्रत्येक पीठिका पर एक-एक जिनप्रतिमा मानी गई है । स्तूपों के आगे की पीठिकाओं पर चेत्य वृक्ष, चैत्य वृक्षों के आगे मणिमय पीठिकाएँ, उन पीठिकाओं के ऊपर महेन्द्र ध्वज तथा उनके आगे नंदा पुष्करिणियाँ मानी गई हैं। तथा यह कहा गया है कि यही वर्णन जिनमन्दिरों तथा शेष बची हुई सभाओं का भी है ( १८९ - १९५ ) । किन्तु जो कुछ भिन्नता है उसको आगे की गाथाओं में कहा गया है । बहुमध्य भाग में चबुतरा चबुतरे पर मानवक चैत्य स्तम्भ, चैत्य स्तम्भ पर फलकें, फलकों पर खूटियाँ, खूटियों पर लटके हुए वज्रमय गी, सीकों में डिब्बे तथा उन डिब्बों में जिनभगवान् की अस्थियाँ मानी सई हैं ( १९६-१९७ ) । Jain Education International 2 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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