Book Title: Divsagar Pannatti Painnayam Author(s): Punyavijay, Suresh Sisodiya, Sagarmal Jain Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit SamsthanPage 22
________________ भूमिका करके यह ग्रन्थ तैयार किया है।' इससे लगभग १३वों शताब्दी में इस ग्रन्थ के अस्तित्व का प्रमाण मिलता है। संभव है संस्कृत म लोकविभाग की रचना के पश्चात् अथवा यापनीय परम्परा के समाप्त हो जाने से यह प्रन्थ भी कालकवलित हो गया है। वर्तमान में द्वीपसागरप्रज्ञप्ति की विषयवस्तु दिगम्बर परम्परा में तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार और लोकविभाग में उपलब्ध होती है, इन सभी ग्रन्थों में तिलोयपण्णत्ति प्राचीन है। तिलोयपण्णत्ति का आधार संभवतः प्राचीन लोकविभाग (प्राकृत) रहा होगा, फिर भी आज स्पष्ट प्रमाण के अभाव में यह कहना कठिन है कि द्वीपसागरप्रज्ञप्ति से तिलोयपण्णत्ति या प्राचीन लोकविभाग आदि ग्रन्थ कितने प्रभावित हुए हैं। द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और त्रिलोकप्रज्ञप्ति (तिलोयपण्णत्ति ) दोनों ही ग्रन्थों को विषयवस्तु लगभग समान है। त्रिलोकप्रज्ञप्ति में जम्बूद्वीप, मनुष्यक्षेत्र, देवलोक, नरक, तीर्थकर, बलदेव तथा वासुदेव आदि का वर्णन है, जबकि द्वीपसागरप्रज्ञप्ति में मात्र मनुष्य क्षेत्र के बाहर के हो द्वीप-समुद्रों का उल्लेख हुआ है। इस दृष्टि से त्रिलोकप्रज्ञप्ति का विषय क्षेत्र द्वोपसागरप्रज्ञप्ति से व्यापक है। तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि त्रिलोकप्रज्ञप्ति में द्वीपसागरप्रज्ञप्ति की अपेक्षा अधिक विस्तृत एवं सुव्यवस्थित विवरण उपलब्ध है। अतः त्रिलोकप्रज्ञप्ति ग्रन्थ द्वीपसागरप्रज्ञप्ति की अपेक्षा निश्चय हो परवर्ती है । यद्यपि यह कहना कठिन है कि त्रिलोकप्रज्ञप्ति की रचना द्वीपसागरप्रज्ञप्ति के आधार पर हुई है, किन्तु इतना निश्चित है कि त्रिलोकप्रज्ञप्ति ग्रन्थ द्वीपसागरप्रज्ञप्ति के पश्चात् रचित है। क्योंकि स्थानांगसूत्र, आदि श्वेताम्बर आगमों और दिगम्बर परम्परा मान्य षट्खण्डागम की धवला टोका में जो प्रज्ञप्तियों का उल्लेख हुआ है उसमें कहीं भी त्रिलोकप्रज्ञप्ति का उल्लेख नहीं हुआ है जबकि द्वीपसागरप्रज्ञप्ति का उल्लेख हुआ है । .. त्रिलोकप्रज्ञप्ति का बहुत कुछ अंश दिगम्बर परम्परा के एक सम्प्रदाय के रूप में सुव्यवस्थित होने के पूर्व का है इसमें अनेक स्थलों पर आचार्यों की मान्यता भेद का भो उल्लेख हुआ है । इस सन्दर्भ में तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ की प्रो० ए० एन० उपाध्ये द्वारा लिखित भूमिका विशेष रूप से दृष्टव्य है । यद्यपि लगभग ५वीं शताब्दी तक श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय इस रूप में. जेन परम्परा में विभाजन नहीं हुआ था, किन्तु निर्ग्रन्थ संघ के भिन्न १. लोकविभाग, पोक १.१/५१।। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142