Book Title: Dhyanashatak Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi Publisher: Prakrit Bharti AcademyPage 14
________________ आचार्य हरिभद्र ने प्रतिक्रमण अध्ययन की निर्युक्ति की टीका में 'चहुविहं झाणं' सूत्र पर टीका लिखते हुए ये गाथाएँ उद्धृत की हैं। हम देखते हैं कि आवश्यकनिर्युक्ति की वृत्ति में आचार्य हरिभद्र ने इन गाथाओं को उसी सूत्र की वृत्ति में उद्धृत किया है, इससे ऐसा अवश्य लगता है कि ये गाथाएँ भाष्य रूप हैं। यहाँ प्रारम्भ में ध्यानशतक नाम देकर बाद में झाणाज्झयणं की वृत्ति भी लिखी है, अतः ध्यानशतक नामकरण हरिभद्र का ही है, क्योंकि उन्होंने अपने अनेक ग्रन्थों का नामकरण गाथा या श्लोक संख्या के आधार पर किया है, यथा— अष्टक, षोडशक, विंशिका, द्वात्रिंशिका, पंचाशक आदि । इसी प्रकार अपने योग सम्बन्धी एक ग्रन्थ का नाम भी उन्होंने 'योगशतक' दिया है, अतः प्रस्तुत ग्रन्थ का 'ध्यानशतक' नाम ग्रन्थकार के द्वारा न दिया जाकर ग्रन्थ के टीकाकार हरिभद्र के द्वारा दिया गया है, ग्रन्थकार द्वारा दिया गया नाम तो 'झाणाज्झयणं' ही है, अतः दो नामों के होने पर भी ग्रन्थ और ग्रन्थकार के विषय में किसी प्रकार की भ्रान्ति की कल्पना नहीं करनी चाहिए । ग्रन्थ के कर्ता जहाँ तक प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्ता का प्रश्न है, परम्परागत दृष्टि से उसके कर्ता 'जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण' माने जाते हैं। इतना ही नहीं, इसके सम्बन्ध में एक प्रमाण यह दिया जाता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ के कुछ संस्करणों में इसकी 106वीं गाथा में ग्रन्थ की गाथा संख्या का निर्देश करते हुए उसके कर्ता के रूप में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का स्पष्ट उल्लेख हुआ है । पंचतुरेण गाहा सएण झाणस्स जं समक्खायं । जिनभद्द खमासमणेहिं कम्मविसोही करणं जइणो ।। प्रस्तुत गाथा में एक सामासिक पद 'कम्मविसोही करणं' है, किन्तु जहाँ तक मेरा ज्ञान है, प्रस्तुत गाथा में 'कम्मविसोहीकरणं' यह सामासिक पद जिनभद्रगणि का विशेषण तो नहीं हो सकता, क्योंकि यहाँ इस सामासिक पद में प्रथमा या द्वितीया विभक्ति है जबकि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण में तृतीया बहुवचन या पंचमी विभक्ति है, अतः 'कम्मविसोही करणं' यह या तो जिनभद्रगणि के किसी अन्य ग्रन्थ का नाम हो सकता है या फिर प्रस्तुत झाणाज्झयण को ही कर्मविशुद्धि कारक कहा गया हो। हमारी दृष्टि में यही विकल्प समुचित है क्योंकि ध्यान तप काही एक प्रकार है और जैनदर्शन में तप को कर्मविशुद्धि या कर्मनिर्जरा का हेतु माना जाता है । पुनः ध्यान में शुक्ल ध्यान ही ऐसी अवस्था है कि जिसके चतुर्थ भूमिका 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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