Book Title: Dhyanashatak
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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• मुनि के ध्यानमय जीवन का परिचय कराते हैं:
झाणोवरमेऽवि मुणी णिच्चमणिच्चाइभावणापरमो । होइ सुभावियचित्तो धम्मज्झाणेण जो पुव्वि 1166 || जिस मुनि का चित्त पहले से ही धर्म ध्यान से सुभावित है, वह ध्यान से उपरत होने पर भी नित्य-अनित्यादि भावनाओं के चिन्तन में संलग्न रहता है।
व्याख्या :
धर्म - 8 - ध्यान की चार भावनाएँ एवं अनुप्रेक्षाएँ हैं
(1) एकत्वानुप्रेक्षा
(2) अनित्यानुप्रेक्षा
(3) अशरणानुप्रेक्षा
(4) संसारानुप्रेक्षा ।
एकत्वानुप्रेक्षा — एकत्व का अर्थ एकता व अकेलापन है। साधक ध्यान की गहराई में अपने को संसार और परिवार से ही नहीं अपितु अपने को अपने तन से भी भिन्न 'अकेला' पाता है । वह संयोग में वियोग का अनुभव कर अकेलेपन का साक्षात्कार करता है। साथ ही ध्यान-साधक ध्यान में आत्म-साक्षात्कार करता है। तो उसे अविनाशीपन, ध्रुवत्व का बोध होता है। वह अनुभव करता है कि उसकी अविनाशी (सिद्ध) से एकता है । अविनाशी और वह एक ही जाति के हैं, केवल दोनों में गुणों की अभिव्यक्ति की भिन्नता है। कहा भी है 'सिद्धां जैसा जीव है, जीव सोई सिद्ध होय', इस अभेद का अनुभव होने पर वह सदैव के लिए अविनाशी अवस्था को प्राप्त हो सकता है। साथ ही वह आत्म-निरीक्षण से यह भी देखता है कि अन्तर्लोक में शरीर, मन और संवेदनाओं में निरन्तर परिवर्तन (पर्याय -प्रवाह ) चल रहा है अतः ये सब विनाशी जाति के हैं। इन सब में जातीय एकता है । अविनाशी जाति का होने से मेरी इन विनाशी जाति वाले पदार्थों से भी भिन्नता है, ये पर हैं। इस प्रकार पर से अपनी भिन्नता का अनुभव कर अपने स्वरूप में स्थित हो अविनाशी से एकता (एकरूपता) का अनुभव करना एकत्वानुप्रेक्षा है, यही आचाराङ्ग सूत्र में कथित ध्रुवचारी बनने की साधना है ।
अनित्यानुप्रेक्षा साधक ध्यान में अन्तर्लोक में प्रवेश कर आत्म-निरीक्षण करता है तो अनुभव करता है कि जैसे बाह्य-लोक में सब पदार्थ बदल रहे हैं, उसी प्रकार भीतर के लोक में भी शरीर का अणु-अणु और संवेदनाएँ सभी प्रतिपल बड़ी तीव्र गति से बदल रहे हैं । सर्वत्र उत्पाद-व्यय का प्रवाह सतत चल रहा है। देखते ही देखते संवेदना उत्पन्न होती है और नष्ट हो जाती है । संसार में दृश्यमान व प्रतीयमान कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है जो नित्य हो, सब अनित्य हैं,
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ध्यानशतक 99
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