Book Title: Dhyanashatak
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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की तरंगों के न उठने से क्षोभरहित है; मुनि रूपी व्यापारी बहुमूल्य शील के अंगों रूपी रत्नों से परिपूर्ण नौका पर आरूढ़ होते हुए शीघ्र बिना किसी बाधा के निर्वाणपुर को प्राप्त करते हैं। • निर्वाण अक्षयसुख है, ऐसा प्रस्तुत करते हैं:
तत्थ य तिरयणविणिओगमइयमेगंतियं निरावाहं।
साभावियं निरुवमं जह सोक्खं अक्खयमुवेंति ।। 62 ।। निर्वाण प्राप्त कर वहाँ वे जीव तीन रत्नों के विनियोगमय, ऐकान्तिक, निराबाध, स्वाभाविक, निरुपम तथा अक्षय सुख को प्राप्त होते हैं। व्याख्या :
मुक्ति प्राप्त होने पर जीव स्वाभाविक सुख प्राप्त करता है, जहाँ सम्यग्दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र का क्रियाकरणात्मक विनियोग सुख प्राप्त होता है। यह अक्षय सुख ऐकान्तिक, निराबाध, स्वाभाविक और निरुपम होता है। ध्याता का चित्त स्फटिकवत् निर्मल हो जाता है। सभी जीवों को आत्मतुल्य देखने में दर्शन गुण की, सभी जीवों को आत्मतुल्य जानने में ज्ञान गुण की, सभी जीवों के साथ आत्मतुल्य व्यवहार में चारित्र गुण की सार्थकता है। • आत्म स्वभाव के ध्यानी की श्रेष्ठता प्रस्तुत करते हैं:
किं बहुणा ? सव्वं चिय जीवाइपयत्थवित्थरोवेयं ।
सव्वनयसमूहमयं झाइज्जा समयसब्भावं ।। 63 ।। अधिक क्या कहा जाये? ध्याता जिनवाणी को ध्यान का विषय बनाये, जिसमें समस्त जीवादि पदार्थों का सभी नयों (विचार-पक्षों) द्वारा विस्तार से वर्णन किया गया है।
व्याख्या : ___ जीव, अजीव, आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात पदार्थ कहे गये हैं, जिनका विस्तृत विवेचन जिन-वाणी अर्थात् आगमसूत्रों में नयदृष्टि से किया गया है। द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक नय, व्यवहार-निश्चय नय, व्युच्छित्तिअव्युच्छित्ति नय, नैगय-संग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्र-शब्द-समभिरूढ़ एवं भूत सप्तनय आदि विचार-पक्षों के द्वारा जीवादि पदार्थों के विस्तृत विवेचन पर चिन्तन करता हुआ ध्याता जीव के अपने स्वरूप को समझे और उसे ही ध्यान का विषय बनाकर स्वभावमय हो जाये। यही जिन-वाणी, अर्हत्-प्रवचन अथवा
ध्यानशतक 97
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