Book Title: Dhyanashatak
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 117
________________ स्वाश्रित अनंत में स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि का चिंतन करता है। इस दृष्टि से आत्मा अकेला है, क्षेत्र से देह या लोक प्रमाण है, काल से शाश्वत-अमर है, भाव से निरंजन, निराकार है, गुण से अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख और अनंत शक्तिसम्पन्न है। इस प्रकार स्वाश्रित अनंतवर्तितानुप्रेक्षा ध्यान की 'एकत्ववितर्क-अविचार' अवस्था के प्रकटीकरण में उपक्रम का कार्य करती है। विपरिणामानुप्रेक्षा पदार्थ की पर्याय परिणमन से होने वाले परिणाम पर विचार विपरिणामानुप्रेक्षा है। पदार्थ की कोई भी पर्याय पल-भर भी एक-सी नहीं रहती है। संसार के दृश्यमान् असंख्य मोहक पदार्थ क्षण-क्षण बदलने वाले हैं। उनकी सुंदरता जो आज है वह कल नहीं रहेगी। उनके परिवर्तनों को देखकर आश्चर्य या संम्मोह नहीं होना विपरिणामानुप्रेक्षा है। परिणमन का प्रवाह अनवरत रूप से चालू रहता है। अत: उनसे होने वाले सुख-दु:ख व प्रभाव में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। सुख की अनुभूति कुछ समय के लिये भी एक-सी नहीं रहती फिर भले ही वह सुख देवयोनिगत ही क्यों न हो। व्यावहारिक जीवन में भी देखा जाता है कि मधुर से मधुर गाना गाया जा रहा हो, हम को उससे पहले क्षण जो सुख मिलता है वह दूसरे क्षण नहीं मिलता। सुख की प्रतीति प्रतिक्षण क्षीण होती जाती है और अंत में यह स्थिति आ जाती है कि हम उससे ऊब जाते हैं और गाना बंद करवा देना पसंद करते हैं, भले ही वही गायक हो और वही गाना गाया जा रहा हो जो प्रारम्भ में चल रहा था। यही बात भोजन, शयन, वसन आदि समस्त पौद्गलिक सुखों पर भी चरितार्थ होती है। तात्पर्य यह है कि पर-पदार्थों के योग से दुःख तो मिलता ही है परन्तु जो सुखाभास रूप सुख मिलता है वह भी क्षण-क्षण विपरिणमन को प्राप्त होता है। जो सुख क्षण-क्षण क्षीण हो, विपरिणमन को प्राप्त हो, जिसका अंतिम परिणाम अरुचिकर, सुखशून्य हो, नीरसता हो, उसके प्राप्त करने के लिये प्रयत्न न करने में, उसमें अपनत्व भाव न रखने में ही आत्महित है। अपनत्व भाव का अभाव पृथक्त्व भाव का आविर्भाव करता है जो ध्यान या आत्म-शुद्धि में सहायक बनता है। जिस प्रकार शुक्ल ध्यान के लक्षण व आलंबन शुक्ल ध्यान की अंतिम स्थिति तक रहते हैं इस प्रकार अनुप्रेक्षाएँ नहीं रहतीं, कारण कि अनुप्रेक्षाओंभावनाओं की आवश्यकता वहाँ होती है जहाँ अधूरापन हो, समस्या का समाधान ढूँढना हो, विकार या अशुद्धि को मिटाना हो। यह स्थिति शुक्ल ध्यान के प्रथम चरण 'पृथक्त्व-वितर्क-सविचार' तक ही रहती है। शुक्ल ध्यान के अगले चरणों 116 ध्यानशतक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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