Book Title: Dhyanashatak
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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व्युत्सर्ग निःसङ्गतयादेहोंपधीनां त्यागो व्युत्सर्गः-अर्थात् देह और उपधि के संग का नि:संकोच त्याग व्युत्सर्ग है। देह, धन, धाम आदि सर्व पदार्थों में अपनत्व भाव ही उनके संग या संबंध का कारण है। यह संग या संबंध ही बंध का कारण है। पृथक्त्व भाव से स्वत: संबंध-विच्छेद होता है। संबंध-विच्छेद होना ही नि:संगता है और नि:संगता ही त्याग या व्युत्सर्ग है। वस्तु को त्याग दें परन्तु उससे संबंध न त्यागें तो वह त्याग नहीं है। वस्तु रहे परन्तु उससे संबंध त्याग दें तो वस्तु रहने पर भी उससे नि:संगता होने से वह त्याग ही है। अतः देह के रहते हुए भी देह से नि:संग-पृथक् रहना त्याग है। पृथक्त्व भाव से स्वत: उपधि के प्रति नि:संगता आती है अर्थात् शुक्ल ध्यान में त्याग या व्युत्सर्गता स्वतःस्फुटित होती है।
ऊपर के विवेचन से स्पष्ट है कि ये चारों लक्षण शुक्ल ध्यान के प्रथम चरण 'पृथक्त्व-वितर्क-सविचार' में प्रकट हो जाते हैं, अत: ये शुक्ल ध्यान के अगले तीनों चरणों में अपने-आप ही वैसे ही विद्यमान रहते हैं जिस प्रकार ऊपर की सीढ़ी में नीचे की सीढ़ी का योग रहता है अथवा उच्च कक्षा में नीचे की कक्षा की योग्यता विद्यमान रहती है।
धर्म ध्यान के फल का निर्देश करते हैं:होंति सुहासव-संवर विणिज्जराऽमर सुहाई विउलाई।
झाणवरस्स फलाई सुहाणुबंधीणि धम्मस्स ।। 94 ।। उत्तम धर्म ध्यान के ये फल हैं—शुभ-आसव, पुण्य, संवर, निर्जरा और देव सुख। ये सभी दीर्घस्थिति, विशुद्धि और उपपात से विस्तीर्ण तथा शुभानुबन्धी फलों की प्राप्ति कराने वाले होते हैं। व्याख्या :
उत्तम धर्म ध्यान से शुभास्रव (पुण्य कर्मों का आगमन), संवर (पाप कर्मों का निरोध), निर्जरा (संचित कर्मों का क्षय) तथा अमर (देव) सुख मिलते हैं। एवं शुभानुबंधी (पुण्यानुबंधी) विपुल फल मिलते हैं। शुभास्रव, संवर और निर्जरा उत्तरोत्तर विशुद्धि को प्राप्त होते हैं। उससे परभव में देव गति की प्राप्ति होती है। वहाँ आयु की दीर्घता और सुखोपभोग की बहुलता होती है। • शुक्ल ध्यान का चरम फल मोक्ष प्रस्तुत करते हैं:
ते य विसेसेण सुभासवादओऽणुत्तरामरसुहं च। दोण्हं सुक्काण फलं परिनिव्वाणं परिल्लाणं ।।95।।
ध्यानशतक 119
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