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क्रियाओं का निरोध हो जाता है और क्रिया या कर्म से अतीत अवस्था 'मुक्ति' की प्राप्ति होती है। और जीव जन्म, मरण, रोग, शोक, पराधीनता, जड़ता, नश्वरता, क्षोभ, अभाव, असमर्थता, चिन्ता आदि सर्व विकारों से व दुःखों से मुक्त हो जाता है। उसे स्वाधीनता, चिन्मयता, अमरता, समर्थता, सम्पन्नता, सर्वज्ञता, सर्वदर्शिता, आनंद की प्राप्ति हो जाती है। जीव विभाव से मुक्त होकर निरंजन, निर्विकार, सच्चिदानंद स्वभाव को प्राप्त कर लेता है।
• छद्मस्थ और केवली के ध्यान की विशेषता बताते हैं:जह छउमत्थस्स मणो झाणं भण्णइ सुनिच्चलो संतो। तह केवलिणो काओ सुनिच्चलो भन्नए झाणं ।। 85 ।। जिस प्रकार छद्मस्थ के मन का निश्चल होना ध्यान कहा जाता है उसी प्रकार केवली के काया का निश्चल होना ध्यान कहा जाता है।
• केवली के चित्त का अभाव होने पर भी ध्यान होने के कारण प्रस्तुत करते
पुव्वप्पओगओ चिय कम्मविणिज्जरणहेउतो यावि। सद्दत्थबहुत्ताओ तह जिणचंदागमाओ य ।।86 ।। चित्ताभावेवि सया सुहुमोवरयकिरियाइ भण्णंति।
जीवोवओगसब्भावओ भवत्थस्स झाणाई ।। 87 ।। संसारस्थ सयोगी या अयोगी केवली के चित्त का अभाव होने पर भी जीव का उपयोग रहता ही है, अत: उनके केवली का शुक्ल ध्यान सूक्ष्म और उपरतक्रिय अन्तिम दो प्रकार का कहलाता है। उनमें ध्यान का अस्तित्व मानने के चार कारण हैं1. जीव के पूर्व प्रयोग के कारण 2. कर्मों की निर्जरा के कारण 3. (ध्यान) शब्द के अनेक अर्थों के कारण 4. जिन-प्रणीत आगम प्रमाण होने के कारण।
व्याख्या :
भवस्थ जीव के चित्तवृत्ति का अभाव होने पर भी सूक्ष्म तथा उपरत क्रिया (सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति व व्युपरत क्रिया अप्रतिपाति) ध्यान है। कारण कि जीव के पूर्व के प्रयोग हेतु से, जीव के उपयोग का सद्भाव होने से (भाव मन होने से)
ध्यानशतक 113
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