Book Title: Dhyanashatak
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy
View full book text
________________
व्यवच्छिन्न क्रिया- अप्रतिपाति शुक्ल ध्यान के भेदों में त्रिविध योगों की स्थिति का निरूपण करते हैं:
पढमं जोगे जोगेसु वा मयं बितियमेयजोगंमि ।
तइयं च कायजोगे सुक्कमजोगंमि य चउत्थं ।। 84 ।।
शुक्ल ध्यान के प्रथम प्रकार में एक ही योग या तीनों योग विद्यमान रह सकते हैं। शुक्ल ध्यान के द्वितीय प्रकार में तीन योगों में से कोई एक योग विद्यमान रहता है। शुक्ल ध्यान के तृतीय प्रकार में केवल एक काययोग ही विद्यमान रहता है तथा चतुर्थ प्रकार में कोई योग नहीं रहता, वह अयोगी को ही प्राप्त होता है ।
व्याख्या :
प्रथम शुक्ल ध्यान 'पृथकत्व - वितर्क - सविचार' में योगों में से एक या अधिक योगों की प्रवृत्ति रहती है। द्वितीय शुक्ल ध्यान एकत्व - वितर्क- अविचार ध्यान तीनों योगों में से कोई एक योग में ही असंक्रमित रूप से होता है । सूक्ष्मक्रिया अनिवृत्ति तृतीय शुक्ल ध्यान में काययोग ही होता है तथा चतुर्थ शुक्ल ध्यान व्युपरतक्रिया अप्रतिपाति या व्यवच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाति में योगरहित स्थिति हो जाती है । वह अयोग अवस्था में होता है ।
शुक्ल ध्यान का यह अंतिम चरण है। जब शुक्ल ध्यान के तीसरे चरण 'सूक्ष्म क्रियाऽनिवृत्ति' में रहा हुआ कायिक व्यापार भी बंद हो जाता है अर्थात् योगों की क्रियाओं का पूर्ण अभाव हो जाता है-क्रियाओं से सर्वथा-सर्वदा संबंध विच्छिन्न हो जाता है तो यह अवस्था व्यवच्छिन्न क्रिया कही जाती है। यह ध्यान प्रतिपतन को प्राप्त नहीं होता है इसलिये अप्रतिपाति कहा गया है। योग सर्वथा निरुद्ध हो जाने से निष्कंप, अडोल अवस्था प्राप्त हो जाती है। यह निष्कंपता या अडोलता पर्वताधिराज सुमेरु के समान होने से इसे शैलेषी अवस्था भी कहा गया है। इसके पश्चात् जीव देह से भिन्न होकर शुद्ध-बुद्ध - मुक्त हो जाता है।
सारांश यह है कि ध्याता शुक्ल ध्यान के प्रथम चरण 'पृथक्त्व-वितर्कसविचार' से आत्मा - अनात्मा में भेद करता है, अतः गाढ़ बंधनों का अभाव हो जाता है। द्वितीय चरण 'एकत्व - वितर्क - अविचार' से आत्मा-परमात्मा में एकत्व अनुभव होता है जिससे परमात्मा की प्राप्ति होती है। तीसरे चरण 'सूक्ष्म क्रियाऽनिवृत्ति' से शेष रहे निःसत्त्व योगों का भी निरोध प्रारम्भ हो जाता है। जब योगों का पूर्ण निरोध हो जाता है तो चौथे चरण 'व्युपरत क्रिया अप्रतिपाति' अवस्था की उपलब्धि होती है । इस अवस्था में योगों का निरोध हो जाने से सर्व
112 ध्यानशतक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org