Book Title: Dhyanashatak
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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क्रोध-मान-माया-लोभ–चार कषायों के क्षय से चार गुण प्रकट होते हैं। क्रोध विजय से क्षमा, मान विजय से मार्दव, माया विजय से आर्जव, लोभ विजय से निर्लोभता-ये ही शुक्ल ध्यान के चार आलंबन हैं-1. क्षमा, 2. मार्दव, 3. आर्जव, 4. मुक्ति। जो आत्मा को स्वभाव में टिकाने में, ठहराने में साहाय्यभूत हो, उसे धर्म ध्यान का आलंबन कहते हैं। शुक्ल ध्यान में श्रेणी आरोहण कषाय की मंदता पर निर्भर करता है। क्षमा आदि गुणों में जितनी दृढ़ता एवं वृद्धि होती जाती है उतनी शुक्ल ध्यान में प्रगति होती जाती है।
साधारण प्राणी क्रोध आदि के आलंबन से जीवनचर्या चलाता है। क्रोध, मान, माया और लोभ-ये कषाय भाव ही उसके जीवन की गति या स्थिति के मुख्य आधार हैं। कषाय भाव की वृद्धि, पर-पदार्थों के साथ एकत्व भाव की वृद्धि भौतिक सामग्री पर निर्भर करती है। ये सब आर्त और रौद्र ध्यान की अभिव्यक्ति हैं। शुक्ल ध्यानी को आध्यात्मिक प्रगति अभीष्ट होती है, अत: वहाँ भौतिक इच्छाओं का आलंबन समाप्त हो जाता है और ध्याता इनके स्थान में कषाय की मंदता व क्षीणता रूप क्षमा, मार्दव, आर्जव और मुक्ति का आलंबन लेता है और इन्हीं के सहारे उसका साधना क्रम आगे बढ़ता है।
जिस प्रकार चारपाई के ऊपर के पाट या काष्ठ पट्टियों के टिके रहने के लिये चारों पाए आलंबन रूप हैं और पायों को टिके रहने में ऊपर की पट्टियाँ आलंबन रूप हैं अर्थात् ये आलंबन परस्पर सहायक हैं, इसी प्रकार शुक्ल ध्यान क्षमा, मार्दव, आर्जव व निर्लोभता के चार पायों के सहारे टिकता व बढ़ता है। अर्थात् कषाय भाव मिटकर अकषाय भाव जितने अंशों में बढ़ता है, शुक्ल ध्यान में उतनी ही दृढ़ता आती है और शुक्ल ध्यान में जितनी दृढ़ता आती जाती है, श्रेणी आरोहण होता जाता है-अकषाय अवस्था उतनी ही बढ़ती जाती है। कषाय निवृत्ति से तत्क्षण आनंद व शक्ति की उपलब्धि होती है जो शुक्ल ध्यान में विशेष विशुद्धि व दृढ़ता का कारण बनती है। जब कषाय सर्वथा क्षीण व क्षय हो जाता है और पूर्ण रूप से सर्वांश में शांति (क्षमा), मार्दव, आर्जव व मुक्ति का आविर्भाव हो जाता है तब शुक्ल ध्यान का 'एकत्व-वितर्क-अविचार' अवस्था में प्रवेश हो जाता है। यहाँ पर ये आलंबन शुक्ल ध्यान के अंग बन जाते हैं।
• केवली के चित्तवृत्ति निरोध का वर्णन करते हैं:तिहुयणविसयं कमसो संखिविउ मणो अणुंमि छउमत्थो। झायइ सुनिप्पकंपो झाणं अमणो जिणो होइ ।। 71 ।। मन का विषय तीनों लोक हैं। शुक्ल ध्यान में संलग्न छद्मस्थ मन को क्रमश:
104 ध्यानशतक
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