Book Title: Dhyanashatak
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 109
________________ का पृथक् रूपेण चिंतन करता है। वह विचारता है कि प्रत्येक द्रव्य स्वभावतः पृथक्-पृथक् है। उन्हें पृथक् करने पर ही स्वाभाविक व शुद्ध अवस्था की प्राप्ति होती है। इस ध्यान में ध्याता का लक्ष्य पृथक्त्व पर रहता है और वितर्क एवं विचार इसमें साधन रूप में रहते हैं। इसलिये इसे 'पृथक्त्व वितर्क सविचार' कहा गया है। वैसे तो पृथक्त्व भाव का उद्भव भेद-विज्ञान के रूप में चतुर्थ गुणस्थान में ही हो जाता है, परन्तु वहाँ वह श्रद्धा के रूप में होता है। इसे जीवन-व्यवहार में, चारित्र में उतारने का उपक्रम आगे गुणस्थान आरोहण में होता है। शुक्ल ध्यान चारित्र के विकास की चरम सीमा पर होता है। पृथक्त्व भाव की आधार भूमि है पदार्थ के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान । पदार्थ मुख्यतः दो हैं----जीव और अजीव । जीव और अजीव के पारस्परिक संयोग व संबंध ही विश्व के विविध रूपों में प्रकट होते हैं। यह सर्वमान्य तथ्य है कि संयोग व संबंध अपने से भिन्न पदार्थ के साथ ही हो सकता है, अपने साथ नहीं। जो अपने से भिन्न है, जिनका वियोग अवश्यंभावी है वह 'पर' है। 'पर' को 'स्व' समझना ही अविवेक-अज्ञान है। यही प्राणी की मूल भूल है। 'पर' को 'स्व' समझने से पर में आत्मत्व बुद्धि व अपनत्व भाव होता है। इस अपनत्व भाव से प्राणी शरीर, परिवार, घरबार, संसार के साथ अहंत्व को प्राप्त होता है। वह पर-पदार्थों की प्राप्ति-अप्राप्ति, संयोग-वियोग, वृद्धि-ह्रास में अपना सुखदुःख मानता है। इस मान्यता के कारण ही उसमें 'पर' के प्रति आकर्षण-विकर्षण होता है और वह पर के साथ तादात्म्य एवं रागात्मक संबंध स्थापित करता है। पर के प्रति इस रागात्मक संबंध से वह बंध को प्राप्त होता है। पर में आत्म-बुद्धि से प्राणी में असंख्य इच्छाओं, वांछाओं, वासनाओं, कामनाओं एवं कांक्षाओं रूपी उद्वेगों का जन्म होता है। प्राणी इनके वशीभूत हो इनकी पूर्ति-तृप्ति के हेतु सतत प्रयत्नशील व आकुल होता है। यही आकुलता उसके दुःख का मूल है। तात्पर्य यह है कि पर-पदार्थों में आत्मत्व व एकत्व बुद्धि होना ही सर्व बंधनों व दु:खों का मूल कारण है। तन, मन, धन, धाम, धरा, दारा आदि सर्व पुद्गल द्रव्य पर हैं, कारण कि एक दिन इनका वियोग व संबंध-विच्छेद अवश्यंभावी है। परन्तु प्राणी भूल से इन्हें अपने मानता है अथवा अपने को इन के रूप मानता है। धन होने पर अपने को धनी, तन के साथ तादात्म्य भाव होने से अपने को दुबला, मोटा, काला, गोरा, रोगी, निरोगी मानता है। देह की बिगाड़, सुधार, मृत्यु आदि-पर्यायों में अपना बिगाड़, सुधार, मृत्यु आदि 108 ध्यानशतक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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