Book Title: Dhyanashatak Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi Publisher: Prakrit Bharti AcademyPage 41
________________ दशाश्रुतस्कन्ध में भी कर्म रूपी बीज के क्षय होने पर संसारूपी अंकुरोत्पत्ति का निषेध किया है।63 भगवद्गीता में ध्यान के स्थान पर ज्ञान पद का प्रयोग करते हुए कहा हैयस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः। ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं........। आचाराङ्ग चूर्णि में भी उपर्युक्त भाववाले श्लोक को उद्धृत किया गया है दग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्करः।। कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्गरः ।। सारांशतः संसार परिभ्रमण से बचने हेतु कर्मों के क्षय को सभी परम्पराओं में अनिवार्य माना है। पातंजल योग सूत्र तथा अंगुत्तर निकाय में योगी के कर्म अकृष्ण-अशुक्ल कहे गये है। __मज्झिमनिकाय के चूलहत्थिमदोपमसुत्त दीघ निकाय के महासतिपट्टानसुत्त; अभिधम्मपिटक के झाणविभंग; धम्मपद के चित्तवग्ग का अध्ययन ध्यान के भेद-प्रभेदों के वर्णन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। सति (स्मृति) और सम्पजन (संप्रज्ञान) मिलकर सतिपट्ठान (स्मृति प्रस्थान) है।68 सतिपट्ठान का अर्थ है—'जागरूकता को संस्थापित करना' । यह इस प्रकार है-शरीर का द्रष्टाभाव से सतत निरीक्षण कायानुपस्सना है; संवेदनाओं का द्रष्टाभाव से सतत निरीक्षण वेदनानुपस्सना है; चित्त का द्रष्टाभाव से सतत निरीक्षण चित्तानुपस्सना है और चित्त में जागने वाले धर्मों का भी द्रष्टाभाव से सतत निरीक्षण धम्मानुपस्सना है। ये चारों सतिपट्ठान सत्त्वों की विशुद्धि, शोक और क्रन्दन का विनाश, दु:ख और दौर्मनस्य का अवसान, सत्य की प्राप्ति और निर्वाण का साक्षात्कार----इन सबके लिये अकेला मार्ग है। स्मृतिमान जब कायानुपश्यी, वेदनानुपश्यी, चित्तानुपश्यी और धर्मानुपश्यी होता है तब संप्रज्ञानी होता है। बौद्ध पालि साहित्य के अनुसार ध्यान के आठ प्रकारों में प्रथम चार प्रकार के रूप ध्यान हैं तथा अन्तिम चार अरूप ध्यान । 1. प्रथम ध्यान के सहवर्ती घटक वितक्क (वितर्क), विचार, पीति (प्रीति), सुख, चित्तेकग्गता (चित्तैकाग्रता) हैं। 2. द्वितीय ध्यान के सहवर्ती घटक पीति, सुख, चित्तेकग्गता हैं। 3. तृतीय ध्यान के सहवर्ती घटक सुख, चित्तेकग्गता हैं। 40 ध्यानशतक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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