Book Title: Dhyanashatak Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi Publisher: Prakrit Bharti AcademyPage 55
________________ 71. (क) 'दुक्खखन्धस्स निरोधो......1 अविज्जा त्वेव असेसविराग-निरोधा.... विज्ञाणनिरोधा नामरूपनिरोधो....' (ख) योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः', योगसूत्र, I/2; 'अभ्यास वैराग्याभ्यां तन्निरोधः', योगसूत्र, I/12; 'तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्नि।जसमाधिः योगसूत्र, I/51 (ग) 'जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं, ध्यानशतक, 1 72. (क) योहि.....इमे चत्तारो सतिपट्टाने एवं भावेय्य सत्तवस्सानि.... धम्मे अञ्जा..' सतिपट्ठानभावनानिसंसो, महासतिपट्ठानसुत्त, श्रीचन्द्रप्रभ ध्यान निलयम, जोधपुर, 2000, पृष्ठ 39-40 (ख) 'रागस्स पहाणाय असुभा भावेतब्बा, दोसस्स पहानाय मेत्ता भावेतब्बा, मोहस्स पहानाय पञ्जा भावेतब्बा।' अंगुत्तर निकाय, I/6/107 (ग) 'वितर्क बाधने प्रतिपक्षभावनम्', योगसूत्र, II/33 (घ) 'ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः ', वही-II/10 (ङ) 'तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाभ्यासः', वही-I/32 73. 'जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं। तं होज्ज भावणा वा अणुपेहा वा अहव चिंता । ध्यानशतक, 2 74. 'चित्तावत्थाणमेगवत्थुमि । छउमत्थाणं झाणं जोग निरोहो जिणाणं तु।।' ध्यानशतक, 3 75. 'देहविवित्तं पेच्छइ अप्पाणं तह य सव्वसंजोगे। देहोवहिवुस्सगं निस्संगो सव्वहा कुणइ ।।' ध्यानशतक, 93 76. "किंच ज्ञानस्य यथा कर्मक्षय हेतुत्वमस्ति तथा योगस्यापि, विनिष्पन्नसमाधिस्तु मुक्तिं तत्रैव जन्मनि। प्राप्नोति योगी योगाग्निदग्धकर्मचयोऽचिराद् ।।' योग वार्तिक, योगसूत्र 1/1, पातंजल योगदर्शनम्, पृष्ठ 8 77. 1. रागो दोसो मोहो य जेण संसारहेयवो भणिया। अटुंमि य ते तिण्णिवि तो तं संसार-तरुवीयं ।।' ध्यानशतक, 13 2. 'परमार्थतस्तु रागद्वेषमोहाः संसारहेतवः ।...' तत्त्वार्थभाष्यटीका, IX/30 78. आचाराङ्गसूत्र, 2.16.1082, अङ्ग-पविट्ठ-सुत्ताणि I, पृष्ठ 109 79. 'तओ णं समणे.....पंचमहव्वयाइं सभावणाई......आणाए आराहित्ता... भवइ', आचाराङ्ग सूत्र 2.16, 1033 से 1082; वही, पृष्ठ 104 से 109 80. आचाराङ्गसूत्र, 2.16.1087, वही, पृष्ठ 109 81. आचाराङ्ग, 1.5.5.313, अङ्ग पविट्ठ सुत्ताणि I, पृष्ठ 20 82. 'विउ णए धम्मपयं अणुत्तरं विणीयतण्हस्स मुणिस्स ज्झायओ। समाहियस्स ऽग्गिसिहा व तेयसा, तवो य पण्णा य जसो य वड्ढइ। 1087 आचाराङ्ग, 2.16.1087, अङ्ग पविट्ठ सुत्ताणि I, पृष्ठ 109 83. आयतचक्खू लोगविपस्सी लोगस्स.........पासइ पुढोवि सवंताई पंडिए पडिलेहाए' आचाराङ्ग 1.2.5, 132 से 135, अङ्ग पविट्ठसुत्ताणि I, पृष्ठ 11 54 ध्यानशतक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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