Book Title: Dhyanashatak Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi Publisher: Prakrit Bharti AcademyPage 81
________________ जिन-शासन विषयक स्थिरता आदि गुणों के समूह से युक्त होता है, उसका मन दर्शनविशुद्धि के कारण ध्यान के विषय में मूढता (विपरीतता) को प्राप्त नहीं होता है, सम्मोह रहित हो जाता है। • चारित्र भावना का निरूपण करते हैं: नवकम्माणायाणं पोराणविणिज्जरं सुभायाणं। चारित्तभावणाए झाणमयत्तेण य समेइ ।। 33 ।। चारित्र भावना के द्वारा नवीन कर्मों के ग्रहण का अभाव, पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा, शुभ (पुण्य) कर्मों का ग्रहण और ध्यान; ये बिना किसी प्रकार के प्रयत्न के ही प्राप्त होते हैं। व्याख्या : चारित्र भावना द्वारा नये कर्मों का आस्रव नहीं होता है। पूर्व के कर्मों की निर्जरा होती है, शुभ कर्मों (पुण्य) का ग्रहण होता है और सहज ही ध्यान सध जाता है। सर्वसावध योग (पापाचरण) की निवृत्ति का नाम चारित्र और उसके अभ्यास का नाम चारित्र भावना है। इस चारित्र भावना से वर्तमान में आते हुए ज्ञानावरणादि पाप कर्मों का निरोध होता है तथा पूर्वोपार्जित उन्हीं पाप कर्मों की निर्जरा भी होती है। • वैराग्य भावना प्रस्तुत करते हैं: सुविदियजगस्सभावो निस्संगो निभओ निरासो य। वेरग्गभावियमणो झाणंमि सुनिच्चलो होइ ।। 34 ।। जिसने जगत् के स्वभाव को भली प्रकार जान लिया है, जो नि:संग, निर्भय और सर्वआशाओं से रहित है उसका मन वैराग्य भावना से ओत-प्रोत होता है। वह ध्यान में सहज ही निश्चल (स्थिर) हो जाता है। व्याख्या : जिस व्यक्ति में ज्ञान की निर्मलता, दृष्टि की निर्मलता, चारित्र की निर्मलता और वैराग्य या अनासक्ति होती है वह सहज ही ध्यानारूढ़ हो सकता है। ध्यान का लक्ष्य है-सर्वविकारों से मुक्त होना, मोक्ष प्राप्त करना। सर्वविकारों का कारण राग है। अतः रागरहित होने पर ही विकारों से मुक्ति सम्भव है। रागरहित होने के लिये वैराग्य आवश्यक है। वैराग्य भाव के अभाव में ध्यान 80 ध्यानशतक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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