Book Title: Dhyanashatak
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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देश के समान काल भी ध्यान के लिये वही योग्य है जिसमें योगों को उत्तम समाधान प्राप्त होता है। ध्याता के लिये दिन, रात, प्रातः, सायं आदि कालविशेष तथा और वेला-काल के एक देशरूप मुहूर्त आदि के विशेष नियम का निर्देश नहीं किया गया है। तात्पर्य यह है कि परिपक्व ध्याता किसी भी काल में निर्बाध रूप से ध्यानस्थ हो सकता है। • ध्यान योग्य आसन का निरूपण करते हैं:
जच्चिय देहावत्था जिया ण झाणोवरोहिणी होइ।
झाइज्जा तदवत्थो ठिओ निसण्णो निवण्णो वा ।। 39 ।। जिस देहावस्था (आसन) का अभ्यास हो चुका है और जो ध्यान में बाधक नहीं है उसी में अवस्थित होकर ध्याता स्थित-खड़े होकर (कायोत्सर्ग आदि में), निषण्ण बैठकर (वीरासन आदि में) अथवा निपन्न सोकर (दण्डायतिक आदि आसन में) ध्यान करें। व्याख्या : __ ध्यान के लिए पद्मासन, वज्रासन, खड्गासन आदि कोई आसन-विशेष आवश्यक नहीं है। जिस आसन से सुख और स्थिरतापूर्वक बैठा जाय, ध्यान के लिए वही आसन उपयुक्त है। खड़े होकर या बैठकर या सोकर ध्यान किया जा सकता है।
महर्षि पतञ्जलि ने भी कहा—'स्थिरसुखमासनम्' —योगसूत्र 2146 ।
• ध्यान के लिए मन-वचन-काय-योग का स्थिर होना महत्त्वपूर्ण है। इसका निरूपण करते हुए काल, देश, अवस्था की कट्टरता का निषेध करते हैं :
सव्वासु वट्टमाणा मुणओ जं देस-काल-चेट्टास। वरकेवलाइलाभं पत्ता बहुसो समियपावा ।। 40 ।। तो देस-काल-चेट्टानियमो झाणस्स नत्थि समयंमि।
जोगाण समाहाणं जह होइ तहा (प) यइयव्वं ।। 41 ।। सभी देश, सर्वकाल और सर्वचेष्टा (आसनों) में विद्यमान, उपशान्त दोष वाले अनेक मुनियों ने (ध्यान के द्वारा) उत्तम केवलज्ञान आदि की प्राप्ति की है, अतः ध्यान के लिए देश, काल, चेष्टा (आसन) का कोई नियम नहीं है किन्तु जिस प्रकार से मन, वचन और काया के योगों का समाधान हो, उसी प्रकार का प्रयत्न करना चाहिए।
84 ध्यानशतक
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