Book Title: Dhyanashatak
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 84
________________ और एकान्त वन में भी स्थिरतापूर्वक ध्यान कर सकते हैं। स्वयं ग्रन्थकार ने यही आशय प्रस्तुत किया है। ध्यान योग्य स्थान का वर्णन करते हैं। : जो (तो) जत्थ समाहाणं होज्ज मणोवयण- कायजोगाणं । सो देसो भूओवरोहरहिओ झायमाणस्स ।1 37 ।। अतः जिस स्थान पर ध्यान करने से मन, वचन और काया के योगों का स्वास्थ्य बना रहे अथवा समाधान हो और जो स्थान जीवों के संघटन से रहित हो, वही देश (स्थान) ध्यान करने वाले ध्याता के लिए उपयुक्त स्थान है। व्याख्या : ध्याता जीवों की विराधना नहीं करता, अतः जीवाकुल प्रदेश को छोड़कर जहाँ ध्याता के मन-वचन-काय की प्रवृत्ति स्थिर बने वही ध्यान योग्य स्थान है। जो विद्वान् साधु पर-पदार्थों से भिन्न आत्मा में आत्मा का अवलोकन कर रहा है वह यह विचार करता है कि हे आत्मन् ! तू ज्ञान- दर्शनस्वरूप अतिशय विशुद्ध है। ऐसा साधु एकाग्रचित होकर जहाँ कहीं भी स्थित होता हुआ समाधि को प्राप्त करता है । ध्यान के योग्य काल का वर्णन करते हैं कालोऽवि सोच्चिय जहिं जोगसमाहाणमुत्तमं लहइ । न उ दिवस - निसा वेलाइनियमणं झाइणो भणियं । 138 ।। ध्यान के लिए काल भी वही श्रेष्ठ है जिस काल में (मन, वचन और काया के) योगों का समाधान प्राप्त होता है। ध्यान करने वाले के लिए किसी निश्चित दिन, रात्रि और वेला का नियम नहीं बनाया जा सकता । व्याख्या : ध्यान के लिए प्रातः, मध्याह्न, सायं, रात्रि आदि काल - विशेष व अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा आदि दिन आवश्यक व अपेक्षित नहीं हैं, जिस काल में मन, वचन और काया की प्रवृत्ति समता व समाधि से रहे, वही काल ध्यान के लिए उपयुक्त है। अभिप्राय यह है कि जहाँ पर मन, वचन एवं योगों की स्वस्थता है, उनके विकृत होने की सम्भावना नहीं है तथा जो प्राणिविघात, असत्यता, चोरी, अब्रह्म (मैथुन) और परिग्रह रूप पापाचरण से रहित है उस स्थान पर कोई भी समय ध्यान के लिये उपयोगी माना गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only ध्यानशतक 83 www.jainelibrary.org

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