Book Title: Dhyanashatak
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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सामायिक आदि धर्म में मन का चिन्तन व वचन व्यवहार होता है। अतः ये ध्यान के साक्षात् अंग नहीं हैं। वाचना आदि चारों श्रुत धर्मानुगामी अथवा स्वाध्याय के भेद हैं। स्वाध्याय से वैराग्य उत्पन्न होता है और वैराग्य से सांसारिक विषयों के प्रति उदासीनता होकर चित्त एकाग्र होता है। अत: स्वाध्याय ध्यान का सहायक अंग है। इसीलिए तप के भेदों में स्वाध्याय के पश्चात् ध्यान कहा गया है। आशय यह है कि स्वाध्याय अर्थात् आत्मावलोकन से ध्यान करने की ओर प्रगति होती है, ध्यान करने की सामर्थ्य प्रकट होती है। इसीलिए स्वाध्याय ध्यान नहीं होकर ध्यान में आरोहण करने का साधन व आलम्बन है।
जिस प्रकार कोई पुरुष रस्सी, तार, खम्भा, नसैनी आदि दृढ़ आलम्बन से विषम भूमि पर भी आरोहण करता है, ऊपर चढ़ जाता है, उसी प्रकार सूत्रादि के आलम्बन से ध्याता उत्तम ध्यान पर आरूढ़ होता है।
जिनके आश्रय से साधना की जाये उनको आलम्बन कहते हैं। धर्म ध्यान चित्तवृत्ति की वह उच्च स्थिति है जिस पर आरूढ़ होने के लिये कोई सबल आलम्बन होना आवश्यक है। धर्म ध्यान के चार आलंबन कहे गये हैं, यथा : 1. वाचना, 2. पृच्छना, 3. परिवर्तना और 4. धर्मकथा। प्रस्तुत ग्रन्थ में धर्मकथा के स्थान पर अनुचिन्ता को चतुर्थ आलम्बन कहा गया है। __ वाचना--किसी भी सद्ग्रंथ का वाचन करना 'वाचना' है। वाचना से धर्म विषयक ग्रंथ का स्वाध्याय ही अभिप्रेत है। जिन ग्रन्थों की वाचना प्राणी के हृदय में विषय, कषाय, मोह, ममता आदि विकारों का कारण हो सकती है ऐसे अहितकारी ग्रंथों को पढ़ना 'वाचना' के अन्तर्गत नहीं आता है। वाचना के अन्तर्गत उन्हीं ग्रन्थों का वाचन आता है जो विकारों का निवारण करते हों, कषायों को कृश करते हों। जिससे स्वभाव या धर्म की उपलब्धि में सहायता मिलती हो, वैसा वाचन सूत्र-रूप भी होता है और अर्थ-रूप भी होता है। उपयोगपूर्वक अर्थरूप वाचना से चित्त की एकाग्रता होती है एवं बुद्धि में निर्मलता आती है। वाचना का एक रूप सूत्र पढ़कर दूसरों को सुनाना भी है, इससे वाचक व श्रोता, दोनों में धार्मिक भावों की अभिवृद्धि होती है। अतः वाचना को धर्म ध्यान का आलंबन कहा गया है।
पृच्छना-ग्रन्थों की सीमा होती है। अत: बहुत-से विषय ग्रंथों में नहीं आते अथवा कई जगह अर्थ की गम्भीरता से विषय बराबर समझ में नहीं आता है। कहीं विचारभेद एवं मतभेद शंका का कारण हो जाता है। इन सब समस्याओं का निवारण करने और शंकाओं का समाधान करने के लिये गीतार्थियों, ज्ञानियों से पृच्छा करना आवश्यक है।
86 ध्यानशतक
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