Book Title: Dhyanashatak Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi Publisher: Prakrit Bharti AcademyPage 86
________________ व्याख्या : __ यहाँ शंका हो सकती है कि ध्यान के लिये उक्त प्रकार देश, काल एवं अवस्था का अनियम क्यों कहा गया—उनका कुछ विशेष नियम तो होना चाहिये था? इसके समाधानस्वरूप यह कहा जा रहा है कि मुनिजनों ने विभिन्न देश, काल और शरीर की अवस्थाओं में अवस्थित रहकर चूँकि अनेक प्रकार से पाप को नष्ट करते हुए सर्वोत्तम केवलज्ञान आदि को प्राप्त किया है, इसी से ध्यान के लिये आगम में देश, काल और आसन-विशेषादि का कट्टर नियम नहीं कहा गया है; किन्तु जिस प्रकार से भी योगों—मन, वचन, काय—का समाधान (स्वस्थता) होता है उसी प्रकार धर्म ध्यान में स्थित होने का प्रयत्न करना चाहिये । ध्यान के लिए महत्त्वपूर्ण यह है कि आर्त व रौद्र ध्यान छोड़ने का प्रयास करे । काल, देश, अवस्था जो आर्त और रौद्र ध्यान को छोड़कर धर्म ध्यान में सहायता करे, वही उपयोगी है अन्य जटिल नियम नहीं है। ध्यान के आलम्बन का निरूपण करते हुए कहते हैं: आलंबणाई वायण-पुच्छण-परियट्टणाऽणुचिंताओ। सामाइयायाइं सद्धम्मावस्सयाइ च ।। 42 ।। विसमंमि समारोहइ दढदव्वालंबणो जहा पुरिसो। सुत्ताइकयालंबो तह झाणवरं समारुहइ ।।43 ।। धर्म ध्यान के ये आलम्बन हैं- 1. वाचना, 2. पृच्छना, 3. परिवर्तना, 4. अनुचिन्ता। ये चारों श्रुतधर्मानुगामी आलम्बन हैं। सामायिक आदि सदावश्यक (सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, ध्यान, कायोत्सर्ग षडावश्यक) चारित्र धर्मानुगामी आलम्बन हैं। जिस प्रकार कोई पुरुष मजबूत सूत्र (रस्सी) आदि का आलम्बन लेकर विषम (ऊँचे) स्थान पर भी आरोहण कर लेता है, उसी प्रकार ध्याता भी सूत्र (वाचना-पृच्छना आदि) का आलम्बन लेकर श्रेष्ठ धर्म ध्यान पर पहुँच जाता है। व्याख्या : ध्यान निर्जरा तत्त्व और तप का ग्यारहवाँ भेद है। इसके पूर्व स्वाध्याय तप है। स्वाध्याय का अर्थ है अन्तर्मुखी हो, आत्म-निरीक्षण कर अपने विकारों को दूर करना। स्वाध्याय से ध्यान की सामर्थ्य आती है, अर्थात् ध्यान रूपी प्रासाद पर आरूढ़ होने के लिए स्वाध्याय आलंबन का कार्य करता है। चित्त की एकाग्रता ध्यान है परन्तु वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और ध्यानशतक 85 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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