Book Title: Dhyanashatak
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 88
________________ तात्त्विक पृच्छा और समाधान प्राप्ति से उपयोग की एकाग्रता होती है, जिससे भौतिक जगत् एवं वासनाओं से वृत्ति उपरत होती है, अतः पृच्छना को धर्म ध्यान का दूसरा आलंबन कहा गया है। परिवर्तना-पढ़े हुए व पूछे हुए ज्ञान की बार-बार आवृत्ति न की जाये तो विस्मरण हो जाता है। इस विस्मरण से बचने के लिये पढ़े हुए, सुने हुए ज्ञान को बार-बार दुहराना 'परिवर्तना' है। यह प्राकृतिक नियम है कि मन जैसा स्मरण करता है वही अंत:करण में अंकित हो जाता है। जिस प्रकार विद्यार्थी पठित विषय को याद रखने के लिए पुनरावृत्ति करता है उसी प्रकार साधक भी ज्ञान की बार-बार परिवर्तना या आवृत्ति करे, तदनुरूप आचरण करे तो उसके संस्कार दृढ़ होते हैं। संस्कारों में दृढ़ता आने से स्वरूप या धर्म में दृढ़ता आती है। अत: धर्म ध्यान में सहायभूत होने से परिवर्तना को धर्म ध्यान का आलंबन कहा है। अनुचिन्ता—अनुचिन्ता को परिवर्तना में समाहित कर कई ग्रन्थों में धर्मकथा को चतुर्थ आलम्बन माना है। धर्मकथा—धार्मिक सिद्धान्त सूत्रों के कथन करने, श्रवण करने या पढ़ने के साथ उनका अनुचिन्तन करने से अन्तःकरण को बड़ा बल मिलता है। किस महापुरुष ने अपने विकारों को दूर करने के लिये कैसी साधना की, घोर उपसर्ग उपस्थित होने पर अपने को किस प्रकार बचाया तथा अपना सर्वस्व देकर भी संयम व नियम की किस प्रकार रक्षा की इत्यादि धार्मिक सूत्रों के अनुचिन्तन से आत्मा को प्रेरणा मिलती है और संसार के प्रपंच से विरक्ति होती है, जो धर्म पर स्थिर रहने में बड़े उपयोगी सिद्ध होते हैं, विकारों को दूर करने में पथ-प्रदर्शन का काम करते हैं, वैराग्य वृद्धि में सहायक होते हैं, पाप से बचने के लिये सचेत करते हैं। आशय यह है कि धर्मकथा धार्मिक जीवन निर्माण में सहायक सिद्ध होती है अतः धर्मकथा धर्म ध्यान का आलंबन कही गई है। • ध्यान के क्रम का वर्णन करते हैं: झाणप्पडिवत्तिकमो होइ मणोजोगनिग्गहाईओ। भवकाले केवलिणो सेसाण जहासमाहीए ।। 44 ।। केवली के भवकाल- शैलेषी अवस्था में शुक्ल ध्यान का प्रतिपत्ति क्रम इस प्रकार रहता है—पहले मनोयोग का निरोध, तदनन्तर वाक्योग का और अन्त में काययोग का निरोध होता है। शेष धर्म ध्यान करने वालों के लिए तो जिस प्रकार उन्हें समाधि होवे, वैसा करना अपेक्षित है। ध्यानशतक 87 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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