Book Title: Dhyanashatak
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy
View full book text
________________
किसी सुख की इच्छा ही रहती है। इस प्रकार वह अपने अन्त:करण के वैराग्य से सुवासित हो जाने के कारण ध्यान में अतिशय निश्चल हो जाता है।
• ध्यान के योग्य देश का निरूपण करते हैं:निच्चं चिय जुवइ-पसू-नपुंसग-कुसीलवज्जियं जइणो। ठाणं वियण भणियं विसेसओ झाणकालंमि ।। 35 ।।
मुनि सदैव स्त्री, पशु, नपुंसक और दुराचारी व्यक्तियों से रहित एकान्त स्थान में रहे। ध्यान के समय तो विशेष रूप से मुनि का स्थान निर्जन होना कहा गया
व्याख्या :
साधु का स्थान तो सदा ही युवती—मनुष्यस्त्री व देवी, पशु-तिर्यंचस्त्री, नपुंसक और कुशील-जुआरी आदि निन्द्य आचरण करने वालों से रहित निर्जन कहा गया है; फिर ध्यान के समय तो वह विशेष रूप से उपर्युक्त जनों से हीन होना ही चाहिये।
ऊपर जो ध्यान के योग्य स्थान का निर्देश किया गया है वह अपरिपक्व योग वाले साधु को लक्ष्य करके किया गया है, आगे जिनके योग स्थिर हो गये ऐसे साधुओं को लक्ष्य करके उसमें विशेषता प्रगट की गई है।
• जहाँ चित्त स्थिर रहे वही ध्यान योग्य स्थान है:थिर-कयजोगाणं पुण मुणीण झाणे सुनिच्चलमणाणं। गामंमि जणाइण्णे सुण्णे रणे व ण विसेसो ।। 36 ।।
योगों की स्थिरता से जिनका मन ध्यान में निश्चल (स्थिर) हो गया है, ऐसे मुनियों के लिए मनुष्यों से व्याप्त ग्राम में और शून्य अरण्य में कोई अन्तर नहीं है।
व्याख्या :
ध्यान-साधना के लिए अरण्य, श्मशान आदि किसी स्थान-विशेष का होना आवश्यक नहीं है। जिस साधक का मन जहाँ स्थिर व समाधिस्थ रहे, वही स्थान ध्यान के लिए उपयुक्त है। जो मुनि स्थिर संहनन और धृति से युक्त है तथा कृतयोग हैं अर्थात् जिन मुनियों का मन ज्ञानादि भावनाओं से अतिशय स्थिरता को प्राप्त हो जाता है, उनके लिये जनसमूह से व्याप्त गाँव में और निर्जन वन में कुछ विशेषता नहीं है, वे स्त्रियों आदि के आवागमन से व्याप्त गाँव के बीच में
82 ध्यानशतक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org