Book Title: Dhyanashatak
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 80
________________ (योग्य ध्याता) ज्ञान का नित्य अभ्यास करने वाला, ज्ञान में मन को स्थिर करता है, (सूत्र और अर्थ ज्ञान से) मन की विशुद्धि करता है। तत्पश्चात् ज्ञान के उस महात्म्य से परमार्थ सार को जानने वाला वह सुनिश्चल मति (स्थिर बुद्धि) होकर ध्यान करता है। व्याख्या : जो मुनि ज्ञान का निरन्तर अभ्यास करता है। इससे उसका मन विशुद्धि को प्राप्त करता है। ज्ञान गुण द्वारा ध्यानी मुनि सार तत्त्व को जाने जिससे बुद्धि निश्चल हो जाये और (बुद्धि के निश्चल हो जाने से) चित्त ध्यान में लग सके। अथवा जिसने ज्ञान का निरन्तर अभ्यास किया है वह (पुरुष) ही मनोनिग्रह और विशुद्धि को प्राप्त होता है। कारण कि जिसने ज्ञान गुण द्वारा सारभूत तत्त्व को जान लिया है वहीं निश्चलमति हो ध्यान करने में सक्षम होता है। ज्ञानभावना का तात्पर्य है कि ज्ञान (श्रुतज्ञान) के विषय में निरन्तर किया गया अभ्यास मन के धारण को निश्चित करता है-उसे अशुभ व्यापार से रोककर स्थिर करता है तथा सूत्र और अर्थविषयक विशुद्धि को भी स्थिर करता है। इस प्रकार ज्ञान के द्वारा जिसने जीव और अजीव में रहने वाले गुणों एवं उनकी अविनाभावी पर्यायों के भी सार (यथार्थता) को जान लिया अथवा ज्ञान गुण के द्वारा जिसने विश्व के सार (यथार्थ स्वरूप) को जान लिया है अथवा परमार्थ को जान लिया वह अतिशय स्थिर बुद्धि होकर ध्यान करता है। अभिप्राय यह है कि ज्ञान के अभ्यास से ध्यान में मन की स्थिरता होती है, अतः ध्यान की सिद्धि के लिये ज्ञान का अभ्यास करना आवश्यक है। • दर्शन भावना का निरूपण करते हैं: संकाइदोसरहिओ पसम-थेज्जाइगुणगणोवेओ। होइ असंमूढमणो दंसणसुद्धीए झाणंमि ।। 32 ।। जो अपने को शंका आदि (कांक्षा-विचिकित्सा-परपाखण्ड प्रशंसा, परपाखण्ड संस्तव) दोषों से रहित; प्रशम (संवेग-निर्वेद-अनुकम्पा-आस्था) तथा स्थैर्य आदि गुणों से युक्त कर लेता है। वह (दृष्टि की समीचीनता के कारण) ध्यान में अभ्रान्त चित्त वाला हो जाता है। व्याख्या : दर्शन भावना से जो शंका-कांक्षादि दोषों से रहित होकर प्रशम, स्वमत और परमत सम्बन्धी तत्त्वविषयक परिज्ञान से उत्पन्न प्रकृष्ट शम अथवा प्रशम एवं ध्यानशतक 79 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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