Book Title: Dhyanashatak Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi Publisher: Prakrit Bharti AcademyPage 70
________________ आर्त ध्यान में व्यक्ति सद्धर्म से मुँह फेर लेता है। प्रमादी रहता है, कुल जातिरूप-धन- ज्ञान आदि के नशे में रहता है। जिन वचनों की उपेक्षा करता हुआ जीवन बिताता है । - आर्त ध्यानी को अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करने की अत्यन्त उत्कंठाआशा तृष्णा रहती है । रात-दिन लक्ष्य उधर ही लगा रहता है, जिससे दूसरे कामों में भी विविध रीति से हानि पहुँचती है। वह धर्म - क्रिया, संयम, तप आदि करके भी वास्तविक लाभ नहीं प्राप्त कर सकता है। आर्त ध्यानी प्राप्त हुए भोग सुखों में अत्यन्त आसक्त रहता है । देवगति में ऐसे सुखों को अनन्त बार भोग लिया है फिर भी समझता है कि ऐसी वस्तु मुझे कहीं भी नहीं मिली, ऐसा मान कर उस वस्तु को क्षण-भर के लिये भी नहीं छोड़ना चाहता है । इतनी महती आसक्ति के योग से इस भव में भी शूल, सूजाक, गरमी, चित्त-भ्रम आदि विविध रोगों से पीड़ित होता है, औषधि एवं पथ्य में लगा रहता है, प्राप्त भोग्य पदार्थों को भी भोग नहीं सकता है, घर में उपस्थित सामग्री को देख-देख कर रोता है । 'कब इस रोग से मुक्त होऊँ और कब इन पदार्थों को भोगूँ' ऐसी इच्छा बनी ही रहती है । आर्त ध्यानी को जिस वस्तु की प्राप्ति हुई है, उस वस्तु से अधिक किसी दूसरे के पास देखकर, सुनकर, उस वस्तु को प्राप्त करने की अभिलाषा होती है । इस प्रकार वस्तुओं को प्राप्त करने व उन्हें भोगने की अभिलाषा अधिकाधिक बढ़ती जाती है, और इसी में उसका जन्म पूरा हो जाता है । वृद्ध अवस्था प्राप्त हो जाती है, तो भी इच्छा - तृष्णा तृप्त नहीं होती है । भर्तृहरि ने ठीक ही कहा है कि 'तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा' अर्थात् हम जीर्ण वृद्ध हो गये हैं, परन्तु तृष्णा — इच्छाएँ जीर्ण नहीं हुईं। इस सृष्टि में संख्यातीत पदार्थ हैं । उन सब की प्राप्ति एक ही समय में और एक ही साथ किसी को भी नहीं हो सकती है। तृष्णा की शान्ति के बिना दुःख नहीं मिट सकता है । प्रत्येक परिस्थिति में किसी-न-किसी प्रकार का अभाव रहता ही है । अतः आर्त ध्यान नितान्त दुःख का ही कारण है। ऐसा समझ कर, सोच को त्यागने का प्रयत्न कर सुखी होना चाहिये । यह आर्त ध्यान संसारी जीवों के साथ अनादिकाल से लगा हुआ है, यह सदा ही उत्पन्न होता रहता है । प्रारम्भ में यह रमणीय प्रतीत होता है परन्तु बाद में अपथ्य आहार जैसा भयंकर दुःख देता है। । Jain Education International For Private & Personal Use Only ध्यानशतक 69 www.jainelibrary.orgPage Navigation
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