Book Title: Dhyanashatak
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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• आर्त ध्यान हेय है यह निरूपण करते हैं:
तदविरय-देसविरया-पमायपरसंजयाणुगं झाणं।
सव्वप्पमायमूलं वज्जेयव्वं जइजणेणं ।। 18 ।। व्याख्या :
यह आर्त ध्यान अविरत (मिथ्यादृष्टि), देशविरत (श्रावक) और प्रमत्त संयत (छठे गुणस्थानवर्ती मुनि) के होता है। यह सभी प्रमादों का मूल है। मुनि-जनों (तथा श्रावकों) को इसका वर्जन करना चाहिए। गुणस्थान की दृष्टि से असंयमी अविरत (मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि), कथंचित् संयमी देशविरत तथा प्रमादयुक्त संयमी (प्रमत्त संयत) द्वारा किये जाने वाले आर्त ध्यान समस्त प्रमादों की मूल जड़ (कारण) हैं, अत: यतिजन (साध्य को पाने का प्रयत्न करने वाले साधकजन) को आर्त ध्यान का परित्याग करना चाहिए।
मद (अभिमान), विषय, कषाय, आलस्य व विकथा रूप अकर्तव्य में रत होना प्रमाद है। ये सभी प्रमाद विषय-भोगों की आसक्ति से उत्पन्न होते हैं। भोगासक्ति ही आर्त ध्यान है। भोगासक्ति न्यूनाधिक रूप से असंयमी, देश (आंशिक) संयमी एवं प्रमत्त-संयत में होती है। अत: जो साधक दोषों एवं दु:खों से मुक्ति चाहते हैं उन्हें आर्त ध्यान का परित्याग कर देना चाहिए।
रौद्र ध्यान रौद्र ध्यान के चार भेदों में से सर्वप्रथम हिंसानुबंधी रौद्र ध्यान का निरूपण करते हैं:
सत्तवह-वेह-बंधण-डहणंऽकण-मारणाइपणिहाणं ।
अइकोहग्गहघत्थं निग्धिणमणसोऽहमविवागं ।। 19 ।। निर्दयी व्यक्ति का प्राणियों के वेध, वेध, बन्धन, दहन, अंकन और मारने आदि का क्रूर अध्यवसान होना तथा अनिष्ट, विपाक वाले उत्कट क्रोध के ग्रह से ग्रस्त होना रौद्र ध्यान का 'हिंसानुबन्धी' नामक प्रथम प्रकार है।
व्याख्या : __ निर्दय मन वाले व्यक्ति का ध्यान अत्यन्त क्रोध कषाय रूपी ग्रह से ग्रस्त (आवेशित), प्राणियों के वध-वेध-बन्धन-दहन-अंकन-मारण आदि का प्रणिधान (दृढ़ अध्यवसान) करने वाला, जघन्य परिणाम (बुरे फल) वाला होता है। यह हिंसानुबन्धी रौद्र ध्यान है। 70 ध्यानशतक
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