Book Title: Dhyanashatak
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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सामान्यतया हर बात में शंका करना, शोक, भय, प्रमाद, असावधानी, क्लेश, चिंता, भ्रम, भ्रांति, विषय सेवन की उत्कंठा, हर्ष-विषाद करना, अंग में जड़ता, शिथिलता, चित्त में खेद, वस्तु में मूर्छा इत्यादि चिह्न आर्त ध्यानी में पाये जाते हैं। • आर्त ध्यानी हीनभावना से ग्रस्त होता है:
निदइ य नियकयाइं पसंसइ सविम्हओ विभूईओ।
पत्थेइ तासु रज्जइ तयज्जणपरायणो होइ ।। 16 ।। आर्त ध्यान में व्यक्ति अपने कृत्यों की निन्दा करता है। दूसरों की सम्पदाओं की साश्चर्य प्रशंसा करता है, उनकी अभिलाषा करता है। प्राप्त होने पर उनमें आसक्त और उनको पाने के लिए सतत चेष्टा करता रहता है।
व्याख्या :
जो भोग-सामग्री स्वयं के प्रयत्न से प्राप्त हुई है उसकी निन्दा करता है अर्थात् उससे असन्तुष्ट रहता है। दूसरों के भोग-सामग्री आदि वैभव को देखकर उसकी प्रशंसा करता है, उसे महत्त्व देता है और वैसी ही विशेष भोग-सामग्री प्राप्त करने की प्रार्थना (याचना-कामना) करता है और उसे प्राप्त करने के लिए तत्पर रहता है। इन्द्रियों के विषयभोग में गृद्ध रहता है। भोगों के परिणाम की क्षणभंगुरता, नश्वरता, पराधीनता, जड़ता, चिन्ता आदि वास्तविकताओं से विमुख रहता है। वीतराग मार्ग व भोगों के त्याग से अपने को बचाता है या यों कहें—जो सदा विषय भोग भोगने में लिप्त व गृद्ध एवं भोग-सामग्री प्राप्त करने में रत रहता है, भोग को ही जीवन मानता है, वह भी आर्त ध्यानी है। • आर्त ध्यान की धर्मविमुखता का निरूपण करते हैं:
सद्दाइविसयगिद्धो सद्धम्मपरम्मुहो पमायपरो।
जिणमयमणवेक्खंतो वट्टइ अद्भृमि झाणंमि ।। 17 ।। जो व्यक्ति शब्दादि विषयों से गृद्ध है। सद्धर्म से पराङ्मुख है, प्रमादी है और जिनमत की उपेक्षा करता हुआ रहता है (वीतराग के प्रवचन से निरपेक्ष है) वह आर्त ध्यान में प्रवृत्त होता है। व्याख्या :
आर्त ध्यानी शब्दादि विषयों, जैसे संगीत, सौन्दर्य, सुगन्ध, स्वाद, स्पर्शसुख आदि में उसी प्रकार लुब्ध रहता है जैसे गिद्ध गर्हित पदार्थों पर टूट पड़ता है।
68 ध्यानशतक
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