Book Title: Dhyanashatak
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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फलस्वरूप होती हैं, तीव्र नहीं होती हैं। यहाँ इन लेश्याओं को अतिसंक्लिष्ट नहीं कहने का कारण यह है कि ये तीनों अशुभ लेश्याएँ रौद्र ध्यानी के होती हैं। रौद्र ध्यान अतिक्रूरता आदि पापों वाला होने से रौद्र ध्यानी के ये लेश्याएँ अति तीव्र संक्लिष्ट परिणाम वाली होती हैं तथा नरक गति में ले जाने वाली होती हैं। • आर्त ध्यान के लक्षण निरूपित करते हुए कहते हैं कि :
तस्सऽक्कंदण-सोयण-परिदेवण-ताडणाई लिंगाई। इट्ठाऽणिट्ठविओगाऽविओग-वियणानिमित्ताई ।। 15 ।।
इष्ट के वियोग, अनिष्ट के अवियोग अर्थात् संयोग, वेदना के कारण से आर्त ध्यानी के आक्रन्दन, शोचन, परिदेवन और ताड़न आदि चिह्न होते हैं। व्याख्या :
उववाई सूत्र में भी आर्त ध्यान के चार लक्षण बताए गये हैं :अट्ठस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तंजहा – 1. कंदणया, 2. सोयणया, 3. तिप्पणया, 4. विलवणया।
अर्थात् आर्त ध्यान के चार लक्षण हैं :-1. क्रंदन-रुदन करना, 2. शोक-चिन्ता करना, 3. आँखों से आँसू गिराना, 4. विलाप करना ।
ध्यानशतक में किञ्चित् शब्दभेद के साथ इन्हें प्रस्तुत किया है। 1. अनिष्ट का संयोग, 2. इष्ट का वियोग, 3. रोग आदि दुःख की प्राप्ति, 4. भोग आदि सुख की अप्राप्ति-इन चार प्रकार के कारणों में से किसी भी एक कारण के उपस्थित होने पर भोगी जीवों में चार अवस्थाएँ उत्पन्न होती हैं1. अक्कंदण——आक्रंदन करना, जोर-जोर से चिल्लाना, रुदन करना जैसे
कि-हाय रे ! मेरे इष्ट संयोगों का नाश क्यों हो गया? और अनिष्ट
संयोग की प्राप्ति क्यों हुई ? इत्यादि विचार उत्पन्न कर रुदन करना। 2. सोयण-शोचन, सोच अर्थात् चिन्ता करना, उदासीन होकर बैठना,
पागल के समान व्यवहार करना आदि। अश्रुपूर्ण आँखों से दीनता दिखाना। 3. परिदेवण-परिदेवन, विलाप करना, दुःखी होना-हाय रे ! जुल्म
हुआ, महान् अनर्थ हुआ', इत्यादि विलाप करना। 4. ताडण—अंग पछाड़ना, छाती पीटना आदि ।
ध्यानशतक 67
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