Book Title: Dhyanashatak
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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रोगादि में निर्दोष-अल्पसावद्यकारी प्रतिकार का आलम्बन लेने वाले, इष्टवियोग में तप-संयम प्रतिकार का आलम्बन करने वाले तथा अनिदानपूर्वक धर्म का सेवन करने वाले मुनि के आर्त ध्यान नहीं होता है।
व्याख्या :
साधक मुनि भूख, प्यास, रोग, अनिष्ट संयोग आदि से उत्पन्न होने वाली वेदना व संताप को प्रथम तो समभाव से सहन करता है तथा शरीर को अपना निकटवर्ती पड़ोसी मानकर शारीरिक हित की दृष्टि से प्रतिकार या उपचार करता है। उस उपचार में किसी प्रकार के सुख पाने की इच्छा रूप निदान नहीं होने से वह उपचार-प्रतिकार निष्पाप व अत्यल्प पाप वाला होता है और दूसरा, इस उपचार में भोक्ता भाव नहीं होने से आर्त ध्यान नहीं होता है। समत्वभाव होने से वह संवर और तप रूप होता है अर्थात् वह धर्म ध्यान होता है। • आर्त ध्यान को संसार का कारण बताते हुए कहते हैं :
रागो दोसो मोहो य जेण संसारहेयवो भणिया।
अटुंमि य ते तिण्णिवि तो तं संसार-तरुवीयं ।। 13 ।। राग, द्वेष और मोह——ये संसार के हेतु कहे गये हैं। ये तीनों आर्त ध्यान में विद्यमान रहते हैं इसीलिये आर्त ध्यान को संसार रूपी वृक्ष का बीज कहा गया है।
व्याख्या:
पूर्व गाथा दस में आर्त ध्यान को संसारवर्धक कहा गया है और संसारवर्धन का मूल कारण राग-द्वेष और मोह हैं। ये तीनों आर्त ध्यान से होते हैं अतः आर्त ध्यान को संसार रूपी वृक्ष का बीज कहा है।
• आर्त ध्यानी की लेश्याएँ और उनके परिणाम का निरूपण करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं:
कावोय-नील-कालालेस्साओ णाइसंकिलिट्ठाओ।
अट्टज्झाणोवगयस्स कम्मपरिणामणिआओ ।। 14 ।। आर्त ध्यानी के कर्म परिणाम से उत्पन्न हई कापोत, नील और कृष्ण लेश्याएँ रौद्र ध्यान की अपेक्षा अति संक्लिष्ट परिणामवाली नहीं होती हैं। व्याख्या :
आर्त ध्यान को प्राप्त व्यक्ति के कापोत, नील और कृष्ण लेश्याएँ अल्प संक्लेशकारी होती हैं, अतिसंक्लिष्ट नहीं होती हैं। ये लेश्याएँ कर्म के उदय के
66 ध्यानशतक
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