Book Title: Dhyanashatak
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 65
________________ सुगंधित पदार्थों को सूँघने की भावना करना और उसमें आनन्द मानना; रसनइन्द्रिय (जीभ) से षट्स भोजन करने की तथा अभक्ष्य भक्षण करने की भावना करना और उसमें आनन्द मानना; इसी प्रकार शयनासन, वस्त्र, आभूषण, स्त्री आदि के विलासमय भोग भोगने की इच्छा करना और उसमें आनन्द मानना चतुर्थ भोगेच्छा नामक आर्त ध्यान है । इसी प्रकार यह भावना करना कि इनका संयोग सदा ऐसा ही बना रहे तथा मैं बड़ा भाग्यशाली हूँ कि मुझे इष्ट, प्रिय, सुखमय सर्वसामग्री प्राप्त हुई है, इनमें खुशी मनाना भोगेच्छा आर्त ध्यान है । किसी को भोग करते देख मैं भी ऐसे मौज-म - मजा करूँ, आनन्द का उपभोग करूँ जिससे मेरा जन्म सफल हो जाये। जहाँ तक ऐसा सुख मुझे नहीं मिले, वहाँ तक मैं अधन्य हूँ, अपुण्य हूँ आदि-आदि विचार भी भोगेच्छा आर्त ध्यान ही हैं । भोगेच्छा अज्ञानजन्य है, ऐसा दृढ़ अध्यवसान करने से आर्त ध्यान का त्याग सम्भव है। तप, संयम, प्रत्याख्यान आदि धर्म क्रियाओं का नियाणा करना, फल माँगना, राज्य और ऐन्द्रिक सुख की वांछा करना, अपनी क्रिया के प्रभाव से आशीर्वाद देना, अन्य स्व-जन, मित्र आदि को धनशाली या सुखी करने की अभिलाषा करना, अपने स्व-जन, मित्र या पड़ोसी आदि की भोग-सामग्री को देख अपनेआप को अन्य की अपेक्षा दरिद्र मानना- -मन की इस प्रकार की उपर्युक्त प्रवृत्तियाँ, अन्तःकरण के विचार भोगेच्छा आर्त ध्यान हैं। अज्ञान ही अच्छा लगने में कारण है, यह निश्चय कर हेय आर्त ध्यान को छोड़ देना चाहिये । आर्त ध्यान का परिणाम प्रस्तुत करते हुए कहते हैं : एयं चउव्विहं राग-दोस मोहंकियस्स जीवस्स । अट्टज्झाणं संसारवद्धणं तिरियगइमूलं ।। 10 11 राग-द्वेष-मोह से प्रभावित जीव के उपर्युक्त वर्णित चार प्रकार का आर्त ध्यान होता है। आर्त ध्यान तिर्यञ्च गति का मूल कारण होने से संसार को बढ़ाने वाला होता है । व्याख्या : जिस क्रिया में राग, द्वेष व मोह होता है उसी क्रिया का प्रभाव (कार्मण शरीर पर) अंकित होता है और वह प्रभाव आर्त ध्यान के रूप में प्रकट होता है। रागद्वेष-मोह ही कर्मबन्ध एवं संसारवृद्धि के कारण हैं । अतः आर्त ध्यान संसारवृद्धि का कारण है । प्रकारान्तर से कहें तो जीव के अंतःकरण में भोगेच्छा की पूर्ति से 64 ध्यानशतक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132