Book Title: Dhyanashatak
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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अनुप्रेक्षा
जैन दर्शन में अणुपेहा (अनुप्रेक्षा) को ध्यान के अभ्यास में सहायक माना है। अनुप्रेक्षा का इस रूप से अन्य किसी दर्शन में उल्लेख नहीं है । गुणस्थान की दृष्टि से भी अनुप्रेक्षा का सम्बन्ध जैन दर्शन की विशेषता है। आगम तथा आगमेतर ग्रन्थों में कहीं-कहीं 12 अनुप्रेक्षाओं को सामूहिक रूप से 12 भावनाएं भी कह दिया गया है। 1. अध्रुव (अनित्य) 2. अशरण 3. एकत्व 4. अन्यत्व 5. संसार 6. लोक 7. अशुचित्व 8. आस्रव 9. संवर 10. निर्जरा 11. धर्म-स्वाख्यात और 12. बोधि दुर्लभ—ये बारह अनुप्रेक्षाएँ हैं।
ध्यानशतक में अनुप्रेक्षा के सन्दर्भ उपलब्ध हैं। 5 वट्टकेर के मूलाचार, शिवार्य के मूलाराधना7 में अन्य विषयों के साथ बारह अनुप्रेक्षाओं का वर्णन है। कुन्दकुन्दाचार्य के 'बारस-अणुवेक्खा' में बारह अनुप्रेक्षाओं का वर्णन निरूपण किया गया।
श्वेताम्बर आगम ग्रन्थों में औपपातिक सूत्र, भगवती सूत्र, स्थानाङ्ग सूत्र, आवश्यक चूर्णि, ध्यानशतक आदि में अनुप्रेक्षा के नाम पर एकत्व, अनित्य, अशरण, संसार, अशुभ आदि का उल्लेख है।
महानिशीथ तथा तत्त्वार्थसूत्र' आदि ग्रन्थों में 12 अनुप्रेक्षाओं के नाम गिनाए हैं।
दस प्रमुख प्रकीर्णकों में से मरणसमाधि (मरण-विभक्ति) में 12 अनुप्रेक्षाओं का विवरण प्रस्तुत किया गया है। और अन्त में जिन-मत भावित चित्त होकर धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान में मति को निवेशित करने के निर्देश दिये हैं।
कई स्थलों पर अनुप्रेक्षा का नामोल्लेख नहीं करते हुए और अन्यत्व, एकत्व, अशरण, संसार आदि अनुप्रेक्षाओं के नाम देते हुए उनका तात्पर्य वर्णित है।
इन आगम ग्रन्थों में अनुप्रेक्षा और तप के बारह भेदों (छः बाह्य तथा छः आभ्यन्तर) का निरूपण साथ-साथ चलता है। छः प्रकार के आभ्यन्तर तप 1. प्रायश्चित्त 2. विनय 3. वैयावृत्य 4. स्वाध्याय 5. ध्यान 6. व्युत्सर्ग हैं। स्वाध्याय के पाँच में से एक भेद के रूप में 'अणुवेहा' पद का अर्थ भिन्न है तथा अन्यत्र अणुवेहा पद द्वादश अनुप्रेक्षाओं के अर्थ में झाण (ध्यान) के निरूपण में आया है।
स्वाध्याय के भेदों में वाचना (आगम का वाचन करना, पढ़ना); पृच्छना (मूल की व्याख्या हेतु प्रश्न पूछना); परियट्टना (अभ्यास करना); 46 ध्यानशतक
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