Book Title: Dhyanashatak
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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जैन दर्शन की ध्यान पद्धति में चित्तवृत्ति निरोध हेतु इसमें राग-द्वेष-मोह त्यागपूर्वक पाँच व्रत पालन, चार कषाय निवारण की मुख्य भूमिका है।” ध्यान का विषय भाव है, अत: 25 प्रकार की भावना, 12 प्रकार की अनुप्रेक्षा और 10 प्रकार के चिन्तन द्वारा इसे सुदृढ़ करना होता है। आचाराङ्ग सूत्र के 'सदाचार' नामक द्वितीय स्कन्ध के 'भावना' नामक पन्द्रहवें अध्ययन में भावनासहित पंच महाव्रतों का आख्यान-भाषण और प्ररूपणा की है। धर्म ध्यान के आज्ञा विचय का यह अर्थ है कि पंच महाव्रत की 25 भावना से भावित होने पर आज्ञा (जिनाज्ञा) की आराधना होती है- 'इच्चेएहिं पंचमहव्वएहिं पणवीसाहिं य भावणाहिं संपण्णे अणगारे.......... आणाए आराहित्ता....भवइ ।'78
पृथ्वीकाय से त्रस पर्यन्त समस्त जीवों को प्राणातिपात का प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्दा और त्याग करना प्रथम महाव्रत है। चलने-फिरने से, मन से, वचन से, सामग्री के रखने-उठाने से, भोजन-पानी आदि के उपयोग में पूर्णत: प्राणों की सुरक्षा का ध्यान रखना प्रथम महाव्रत की पाँच भावनाएँ हैं।
मृषावाद का त्याग द्वितीय महाव्रत है। क्रोध, लोभ, भय और हास्यवश मृषावाद का परित्याग तथा सोच-विचार कर (अनुविचिन्तन करके) बोलनाये पाँच द्वितीय महाव्रत की भावनाएँ हैं। इसी प्रकार शेष महाव्रतों की पंचभावनाओं से चित्त भावित होने पर ध्यान सुकर होता है। धर्म ध्यान तृष्णा छूटने से ही सम्भव है।80 अत: भावना को ध्यान में सहायक माना है।
अनित्यादि 12 अनुप्रेक्षाएँ ध्यान हटने पर पुनः ध्यान लगाने में सहायक होती हैं, अत: अनुप्रेक्षा को भी ध्यान का माध्यम माना है। 10 प्रकार के मिथ्यात्व का चिन्तन कर सम्यक्त्व धारण करना ध्यान में सहायक है, अत: चिन्तन भी ध्यान की एक पद्धति है, ध्यान में सहायक है।
देह, भौतिक साधन और संसार से विरक्ति का प्रशिक्षण भावना है, देहात्मभाव की समाप्ति के लिए अशरण आदि अनुप्रेक्षा में ध्यान लगाना अनुप्रेक्षा है और चित्त का मानसिक अनुशासन चिन्तन है।
ध्यान के प्रारम्भ में चिन्ता और भावना तथा ध्यान के अन्त में बारह अनुप्रेक्षाएं (छ: संसार की असारता की सूचक और छ: धर्म की सारभूत)- यह ध्यान की शास्त्रीय प्रक्रिया है।
ध्यान का बाधक तत्त्व संशय (शंका-कांक्षा-वित्तिगिच्छा) है। ध्याता का संशय सर्वथा मिटने से पूर्व समाधि लाभ नहीं होता। आचाराङ्ग के अनुसार जब तक चित्त वित्तिगिच्छा अर्थात् संशयग्रस्त है तब तक परमशान्ति स्वरूप
प्रस्तावना 43
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