Book Title: Dhyanashatak
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 24
________________ एकाग्र होना है, जबकि व्युत्सर्ग में मन 'अमन' हो जाता है। यही कारण है कि व्युत्सर्ग ध्यान की उच्चतम या अन्तिम अवस्था है। व्युत्सर्ग में निर्ममत्व बुद्धि है। वह योग-निरोध है। वह वीतरागता की साधना से भी एक चरण आगे बढ़ा हुआ है। यही कारण है कि व्युत्सर्ग शुक्ल ध्यान का लक्षण कहा गया है। एतदर्थ यह बताया गया है कि छद्मस्थ के सम्बन्ध में मन की एकाग्रता को ध्यान कहा जाता है जबकि वीतराग के सम्बन्ध में काय की निश्चलता को अर्थात् योग निरोध की शैलेषी अवस्था को ध्यान कहा जाता है। शुक्ल ध्यान के फल या परिणाम की चर्चा करते हुए कहा गया है कि शुक्ल ध्यान के प्रथम दो चरणों का फल शुभाश्रवजन्य अनुत्तर स्वर्ग का सुख है जबकि अन्य चरणों का फल कर्मक्षय और मोक्ष की प्राप्ति है। कहा गया है कि तप से कर्म निर्जरा होती है, कर्म निर्जरा से मोक्ष की प्राप्ति होती है। ध्यान तप का प्रधान अंग है, अत: वह मोक्ष का हेतु है। अन्त में अनेक दृष्टान्तों द्वारा ध्यान मोक्ष का हेतु है, इस बात को सिद्ध किया गया है और कहा गया है कि ध्यान सभी गुणों का आधार स्थल है, दृष्ट और अदृष्ट सभी सुखों का साधक है, अत्यन्त प्रशस्त है, वह सदैव ही श्रद्धेय, ज्ञातव्य एवं ध्यातव्य है। इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ ध्यान की परिभाषा, ध्यान का स्वरूप, ध्यान के प्रकार, उनके प्रभेद स्वरूप, लक्षण, आलम्बन, ध्येय विषय, लेश्या, विभिन्न ध्यानों के स्वामी या अधिकारी, ध्यान के योग्य स्थान, ध्यान के योग्य समय, ध्यान के आसन, मुद्रा आदि पर प्रकाश डालता है। इसके विवेचन विषयों में ध्यान के भेद, प्रभेद, उनके लक्षण, आलम्बन आदि की चर्चा तो स्थानांग सूत्र और तत्त्वार्थ सूत्र पर आधारित हैं, किन्तु ध्यान के स्थान, काल, आसन आदि की चर्चा इसकी अपनी मौलिकता है, जिसका परवर्ती ग्रन्थों, जैसे ज्ञानार्णव, योगशास्त्र आदि में भी अनुसरण किया गया है। यद्यपि पूर्व में इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के गुजराती और हिन्दी अनुवाद सहित तीन संस्करण प्रकाशित हुए। इनमें पूजनीय भानुविजयजी (पूजनीय भुवनभानुसूरिजी) का विवेचन सहित दिव्य दर्शन कार्यालय, कालूपुर, अहमदाबाद से प्रकाशित संस्करण एवं पण्डित खूबचन्दजी द्वारा व्याख्यायित एवं वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली से प्रकाशित संस्करण महत्त्वपूर्ण हैं, किन्तु अब वे प्रायः अप्राप्य हैं, अतः प्राकृत भारती, जयपुर श्री कन्हैयालाल लोढ़ा एवं भूमिका 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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