Book Title: Dhyanashatak
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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होता है।47 शैलेषी में जीव अकर्मता प्राप्त करता है। अकर्मता से जीव सिद्धिबोधि-मुक्ति-परिनिवृत्ति एवं सर्व दु:खों के अन्त को प्राप्त करता है। । उपर्युक्त 73 सम्यक्त्व परिकर्मों में तत्कालीन बिखरी हुई जैन साधना पद्धति का सङ्कलन किया गया है। 1 से 4 श्रद्धा, 5 से 7 में आत्मदोष विवेचन, 8 से 13 में षडावश्यक, 14 से 17 में क्षमापना, 18 से 24 में स्वाध्याय, 25 से 28 में ध्यान-संयम-तप, 29 से 32 में प्रायः अप्रतिबद्धता, 33 से 41 में प्रत्याख्यान, 42 से 45 में आचेलक्य एवं वीतरागता, 47 से 49 में खंति आदि परिकर्म, 50 से 52 में भाव-करण-योग सत्यता, 53 से 58 में त्रिविध गुप्ति
और त्रिविध-समाधान रूप संवर एवं समाधि योग, 62 से 66 में इन्द्रिय निग्रह तथा 67 से 70 में कषाय विजय का निरूपण किया गया है, जो प्राचीन जैन प्रत्याहार और ध्यान पद्धति की ओर संकेत करता है। 59 से 61 सम्यक्त्व परिकर्म रत्नत्रय हैं जो मोक्ष के मार्ग का निर्देश करते हैं तथा 71 में मिथ्यात्व विजय, 72 में शैलेषी तथा 73 में अकर्मता को सूचिबद्ध किया है।48 __ पतञ्जलि ने चित्त की निर्मलता के लिये जिन मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा का निर्देश किया है, उन्हें वाचस्पति मिश्रकृत तत्त्ववैशारदी टीका में परिकर्म कहा गया है। इसी सूत्र के व्यासभाष्य में कहा है कि मैत्री आदि की भावना से शुक्ल धर्म उत्पन्न होता है और चित्त निर्मल होकर एकाग्र हो जाता है।
ध्यानशतक में प्रतिपादित जैन ध्यान पद्धति में पातञ्जल योग सूत्र में वर्णित योग की मूल भावना का समावेश हो जाता है। अष्टाङ्ग योग में 'यम' की प्राथमिकता दी गई है। जैन दर्शन के पाँच व्रतों का 'यम' नाम से निर्देश नहीं मिलता है, किन्तु पाँच व्रतों में यम का समावेश होता है। प्राचीन आगम
आचाराङ्ग सूत्र के सत्थपरिण्णा अध्ययन में कहीं व्रत शब्द का निर्देश नहीं है किन्तु इसे अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह इत्यादि के लिये प्रयुक्त 'यतना' शब्द में 'यम्' धातु का प्रयोग किया गया है। इससे अप्रत्यक्ष रूप से जैन दर्शन में अहिंसा आदि के लिये 'यम्' धातु निर्देशक प्रयोग मिलते हैं।
जैन सम्मत भावना तथा अनुप्रेक्षा एवं बाह्याभ्यन्तर तप, चउवीस्तव, वन्दना आदि के अन्तर्गत 'नियम' समावेशित है। आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि का अन्तर्भाव यथायोग्य समिति, गुप्ति, समाधारणता, प्रतिक्रमण, ध्यान, कायोत्सर्ग, प्रत्याख्यान आदि में किया जा सकता है तथापि दोनों धाराओं के पारिभाषिक शब्द भिन्न-भिन्न हैं।
36 ध्यानशतक
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