Book Title: Dhyanashatak
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 27
________________ जानकारी हेतु ध्यानाध्ययन (ध्यानशतक) में वर्णित ध्यान सम्बन्धी 105 गाथाएँ उद्धृत कर दीं, अन्तिम गाथा में ग्रन्थकार का नामोल्लेख तथा उपसंहार होने से उसे प्रतिक्रमण के प्रकरण में देना आवश्यक नहीं समझा और वैसे भी प्राचीन परम्परा के अनुसार आवश्यकनिर्युक्ति के अधिकांश उद्धृत उल्लेखों में ग्रन्थकार का नामनिर्देश उपलब्ध नहीं है, इसकी विस्तृत चर्चा इसी प्रस्तावना में ध्यानशतक के रचयिता के विषय में विमर्श शीर्षक के अन्तर्गत की गई है । अतः आवश्यकनिर्युक्ति में अन्तिम गाथा की अनुपस्थिति से उसका अभाव मानना युक्तियुक्त नहीं है। बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री ने 'ध्यानशतक तथा ध्यानाध्ययन' पुस्तक की अपनी प्रस्तावना में अनावश्यक रूप से जिनभद्र क्षमाश्रमण द्वारा इस ग्रन्थ के रचयिता होने के सम्बन्ध में सन्देह व्यक्त किया है। जब ध्यानशतक ग्रन्थ के मूल में ही जिनभद्र क्षमाश्रमण का रचयिता के रूप में उल्लेख किया है तो सन्देह हो ही नहीं सकता है। ध्यानशतक में 106 गाथाएँ हैं और अन्तिम गाथा अर्थात् 106वीं गाथा जिनभद्र क्षमाश्रमण को रचयिता बताती है । यह बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री ने अपने अनुवाद में 106वीं गाथा को ग्रन्थ से निकाल दिया है। जिसका प्रयोजन उनकी भूमिका से स्पष्ट नहीं है । इसके अतिरिक्त ध्यानशतक की मध्यवर्ती निम्न गाथा भी आवश्यकनिर्युक्ति में हरिभद्र की टीका में उद्धृत ध्यानशतक में सम्मिलित नहीं की गई है, किन्तु यह गाथा संख्या 45 के रूप में अभिधान राजेन्द्र कोश में संकलित है आणा विजए, विवागे, संठाणओ अ नायव्वा । एए चत्तारि पया, झायव्वा धम्मझाणस्स ।। ' यह गाथा मुनि दुलहराज ने 'जैन योग के सात ग्रन्थ' नामक संकलन में सम्मिलित तो की है, किन्तु इसे अन्यकर्तृक कहकर इस पर गाथा संख्या 45 अंकित नहीं की है । ' इन दोनों गाथाओं को यदि जोड़ा जाय तो इसकी कुल गाथा संख्या 107 होती है। अभिधान राजेन्द्र कोश में उद्धृत ध्यानशतक में 105 गाथाओं के बाद अन्तिम दो गाथाओं को पुष्पिका के रूप में दिया है। इस प्रकार कुल गाथा संख्या 107 मानी गई है। अभिधान राजेन्द्र कोश में गाथा संख्या का क्रम इस प्रकार है- 'झाण' शब्द के निरूपण में उद्धृत ध्यानशतक की गाथा संख्या 1 से 45 लगातार तथा 26 ध्यानशतक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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