Book Title: Dhyanashatak
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

Previous | Next

Page 26
________________ प्रस्तावना ध्यानाध्ययन जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण (7वीं शती ईसवी) द्वारा आगमशैली में लिखा जैन योग विषयक प्राचीन ग्रन्थ है, जो ध्यानशतक नाम से जाना जाता है। ग्रन्थ की प्रथम मूल गाथा में ग्रन्थकार ने 'ध्यानाध्ययन' के कथन की प्रतिज्ञा की है- 'वीरं सुक्क.........''। ध्यानशतक में 106 गाथाएँ उपलब्ध हैं। ध्यानशतक की अन्तिम गाथा में ग्रन्थ का रचयिता जिनभद्र क्षमाश्रमण को बताया गया है। भण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पूना से प्रकाशित डिस्क्रिप्टिव केटेलॉग ऑफ द गवर्नमेण्ट कलेक्शन्स ऑफ मैनुस्क्रिप्ट्स वॉल्यूम XVII, भाग III के पृष्ठ 415-416 पर ग्रन्थ संख्या 1055 तथा 1056 में ध्यानशतक की गाथा संख्या 106 बताई है जिसकी अन्तिम गाथा में ग्रन्थकर्ता का नामोल्लेख है पंचुत्तरेण गाहासएण झाणस्स यं समक्खायं। जिणभद्दखमासमणेहिं कंमविसोहीकरं जंइणो।। 106।।' अर्थात् एक सौ पाँच गाथाओं में ध्यान का जो कथन किया गया है वह जिनभद्र क्षमाश्रमण के द्वारा मुनि (यति) के कर्मों की विशुद्धि के लिए है। उपर्युक्त प्रमाण के आधार पर ग्रन्थकार जिनभद्र क्षमाश्रमण का उल्लेख करने वाली गाथा का ध्यानशतक की ही गाथा होना प्रमाणित होता है। अभिधान राजेन्द्र कोश में भी इस अन्तिम गाथा को संकलित किया है।' यह ध्यानाध्ययन आवश्यकनियुक्ति की हरिभद्र (8वीं शती ईसवी) कृत टीका में आवश्यकनियुक्ति की गाथा 1271 के बाद एक स्वतन्त्र कृति के रूप में सम्मिलित किया है जिसे ध्यानशतक नाम से निर्दिष्ट किया है- 'ध्यानशतकस्य च महार्थत्वद्.... माह'। इस उद्धृत ग्रन्थ की अन्तिम गाथा 106 तथा उस पर टीका आवश्यकनियुक्ति के प्रस्तुत संस्करण में उपलब्ध नहीं है, इसका यह अर्थ नहीं है कि ध्यानशतक में 105 गाथाएँ ही हैं। आवश्यकनियुक्ति में प्रतिक्रमण के प्रकरण में ध्यान का संक्षिप्त निरूपण कर हरिभद्र ने ध्यान के बारे में विस्तृत प्रस्तावना 25 www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132