Book Title: Dhyanashatak
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 33
________________ संजमयोग (संयमयोग) तथा सज्झायजोग (स्वाध्याययोग)33; अज्झप्पझाणजोग (अध्यात्मध्यानयोग)34 तथा सामणाणं जोगाणं (श्रामण्य योग) आदि। समवायाङ्ग सूत्र में बत्तीस योगों का संग्रह है। जो आवश्यकनियुक्ति की गाथा संख्या 1274 से 1278 में वर्णित हैं।37 आवश्यकनियुक्ति में प्रतिक्रमण नामक चतुर्थ आवश्यक में क्रम प्राप्त बत्तीस योगसंग्रह प्रतिक्रमण करने का निरूपण है। मन-वचन-काया के व्यापार योग हैं। अशुभ से लौटना या अशुभ का पश्चात्ताप करना प्रतिक्रमण है, अत: शुभ योगों का ही संग्रह किया गया है। आवश्यकनियुक्ति की हरिभद्र कृत टीका में इन योगों को लघु कथाओं के दृष्टान्तों से समझाया गया है तथा इन योगों में मुनि-आचार एवं निर्वाण मार्ग से सम्बन्धित विभिन्न साधना पद्धतियों का संकलन किया गया है। ये 32 योग निम्नानुसार हैं1. आलोयणा (आलोचना)—गुरु के समक्ष अपने दोषों को निवेदन करना आलोचना है। 2. निरवलाव (निरपलाप)-आचार्य द्वारा शिष्यों के आलोचित दोष अन्य किसी को नहीं बताना। 3. आवईसु दढधम्मया (आपत्ति में दृढ़धर्मता)-आपत्तियों के समय धर्म में दृढ़ रहना। 4. अणिस्सिओवहाणे (अनिश्रितोपधान)—अन्य किसी की सहायता के बिना उपधान अर्थात् तप करना। प्रशस्त योगसंग्रह के लिए साधु को चाहिये कि वह इहलौकिक और पारलौकिक अपेक्षा के बिना तप करे। 5. सिक्खा (शिक्षा)--प्रशस्त योगसंग्रह हेतु शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना चाहिये। हरिभद्र ने आवश्यकनियुक्ति टीका में शिक्षा के दो प्रकार बताये हैं- 1. ग्रहण शिक्षा 2. आसेवन शिक्षा। 6. णिप्पडिकम्मया (निष्प्रतिकर्मता)—शरीर संस्कार न करना। 7. अण्णायया (अज्ञातता)--प्रशस्त योग संग्रह के लिए अपनी तपश्चर्या को गुप्त रखना। 8. अलोहे (अलोभता)-लोभ रहित होना । 9. तितिक्खा (तितिक्षा)—परीषहों पर विजय पाना । 10. अज्जवे (आर्जव)-ऋजुता। 11. सुई (शुचि)-संयम का पालन । 12. सम्मदिट्ठी (सम्यग्दृष्टि)-अविपरीत दृष्टि रखना। 32 ध्यानशतक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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