Book Title: Dhyanashatak
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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में जिनभद्र क्षमाश्रमण को ध्यानशतक का रचयिता बताया है, यह जानते हुए भी बालचन्द्र शास्त्री ने अपनी सम्पादित पुस्तक में इस अन्तिम गाथा को सम्मिलित नहीं कर 105 गाथाओं को ही प्रकाशित कराया है। उन्हीं के शब्दों में- 'यह गाथा स्वयं ग्रन्थकार के द्वारा रची गई है या पीछे किसी के द्वारा जोड़ी गई है, यह सन्देहास्पद है। 23 इस कथन से शास्त्रीजी का मन्तव्य स्पष्ट नहीं होता है।
इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थ का मङ्गलाचरण जिनभद्र की अन्य कृतियों के मङ्गलाचरण से भिन्न रीति से किया गया है, ऐसा तर्क देकर बालचन्द्र शास्त्री ने जिनभद्र क्षमाश्रमण को ध्यानशतक का रचयिता मानने में शंका उत्पन्न की है।24
इसके अतिरिक्त बालचन्द्र द्वारा ध्यानशतक को जिनभद्र क्षमाश्रमण रचित नहीं मानने के पीछे वे ही तर्क दिये गये हैं जो पण्डित दलसुख मालवणिया ने दिये हैं, जिनका निराकरण किया जा चुका है। जहाँ तक भिन्न मङ्गलाचरण करने का प्रश्न है, भिन्न-भिन्न ग्रन्थों के लिये भिन्न-भिन्न मङ्गलाचरण होना स्वाभाविक है कोई दोष या विपत्ति नहीं। ध्यानशतक ध्यान विषयक ग्रन्थ होने से वीर को योगीश्वर कहना अधिक स्वाभाविक है। योगशास्त्र पर स्वोपज्ञ विवरण प्रारम्भ करते हुए हेमचन्द्राचार्य ने भी श्रमण भगवान् महावीर को योगीनाथ कहा है
नमो दुर्वाररागादि - वैरिवार - निवारिणे।
अर्हते योगिनाथाय, महावीराय तायिने ।। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने ध्यानशतक में मङ्गल गाथा में जोईसरं-सरण्णंवीरं के द्वारा ब्राह्मण-बौद्ध-श्रमण तीनों परम्पराओं के गुम्फन का प्रयास किया प्रतीत होता है। वैदिक, जैन एवं बौद्ध साहित्य में योग
वैदिक साहित्य में 'योग' का अर्थ प्रायः 'समाधि' है।25 जैन एवं बौद्ध साहित्य में योग (प्राकृत में जोग) शब्द का सामान्य अर्थ क्रिया (प्रवृत्ति) है जो शुभ एवं अशुभ दोनों प्रकार की हो सकती है। बौद्ध साहित्य में निरूपित काययोग, भावयोग, दिट्ठियोग, अविज्जायोग आदि में योग शब्द का प्रयोग संयोजन (बन्धन) अर्थ में हुआ है। जैन दर्शन में आस्रव के अर्थ में योग का प्रयोग हुआ है। योग का सीधा अर्थ है जोड़ना । अशुभ पापकर्म योगों का प्रतिक्रमण तथा ध्यान द्वारा प्रशस्त योग का सेवन करना अभीष्ट माना गया है।
जैन आगमों में योग शब्द का प्रयोग उपपद शब्दों के साथ जुड़कर भी हआ है। उदाहरणार्थ-झाणयोग (ध्यानयोग)33; समाहिजोग (समाधियोग)32;
प्रस्तावना 31
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