Book Title: Dhyanashatak
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 23
________________ विषय रूप विषय का संकोच करते हुए आत्म तत्त्व पर केन्द्रित कर अमन या निर्विषय बना देता है। जिस प्रकार ईंधन को जलाते हुए ईंधन के अभाव में अग्नि स्वयं नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार मन अपने विषयों का त्याग करते हुए अन्त में अमन बन जाता है । जैसे कच्चे घड़े को अग्नि में पकाने पर उसकी आर्द्रता समाप्त हो जाती है वैसे ही ध्यानाग्नि में तपाने से मन की आर्द्रता अर्थात् विषयानुगामिता समाप्त हो जाती है। फिर मनयोग, वचनयोग और काययोग का निरोध किस प्रकार और किस क्रम से होकर शैलेषी अवस्था प्राप्त होती है, इसकी चर्चा है। इसके पश्चात् शुक्ल ध्यान के चार चरणों- 1. पृथकत्व वितर्क विचार अर्थात् आत्म-अनात्म का भेद विज्ञान, 2. एकत्व वितर्क अविचार अर्थात् आत्मा के शुद्ध स्वरूप में स्थिरता, 3. सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति अर्थात् योग निरोध में प्रवर्तनशील आत्म स्थिति और 4. व्युछिन्न क्रिया अप्रतिपाती अर्थात् त्रियोग निरोध की अन्तिम स्थिति या निर्विकल्प आत्म समाधि की अवस्था का विवेचन किया गया है । तत्पश्चात् शुक्ल ध्यान की चार अनुप्रेक्षाओं अर्थात् आस्रव हेतु, संसार की अशुभता, भवभ्रमण की अनन्त परम्परा और वस्तु की परिणमनशीलता का विचार किया गया है, यद्यपि ये अनुप्रेक्षाएँ शुक्ल ध्यान की प्रारम्भिक अवस्था में ही सम्भव हैं । फिर शुक्ल ध्यान में लेश्या की स्थिति की चर्चा करते हुए कहा गया है कि शुक्ल ध्यान के प्रथम दो चरणों में शुक्ल लेश्या, तीसरे चरण में परम शुक्ल लेश्या और चौथे चरण में लेश्या का अभाव होता है, लेश्या मनोवृत्ति रूप है, शुक्ल ध्यान के चतुर्थ चरण में मन 'अमन' हो जाता है, अतः वहाँ लेश्या नहीं होती है। तदनन्तर अवध (पूर्ण अहिंसा), असम्मोह, विवेक और व्युत्सर्ग— शुक्ल ध्यान के इन चार लक्षणों की चर्चा की गई है। शुक्ल ध्यान में आत्मा स्वरूपघात ( स्वहिंसा) और पर - घात दोनों से रहित होता है, उसकी मोह दशा का निवारण हो जाने से उसमें असम्मोह और विवेक गुण प्रकट हो जाते हैं। फिर शुक्ल ध्यान का जो महत्त्वपूर्ण लक्षण व्युत्सर्ग है वह महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यही एक ऐसा लक्षण है जो शुक्ल ध्यान को अपने सम्यक् अर्थ में कायोत्सर्ग बना देता है, वीतराग ध्यान बना देता है । सामान्यतया जनसाधारण ध्यान और कायोत्सर्ग को एक मान लेता है, किन्तु दोनों में अन्तर है । तप के बारह भेदों में ध्यान और कायोत्सर्ग को अलग-अलग माना है। ध्यान चित्त की एकाग्रता है, जबकि कायोत्सर्ग या व्युत्सर्ग निर्ममत्वता है । दूसरे शब्दों में ध्यान तो किसी एक विषय पर मन का 22 ध्यानशतक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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