Book Title: Dhyanashatak
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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भूमिका
साधना और ध्यान
जैन साधना वस्तुतः समत्वयोग की साधना है। समत्व की यह साधना ध्यान और कायोत्सर्ग के बिना सम्भव नहीं है। सामान्यतया व्यक्ति का ध्यान तो कहीं-न-कहीं केन्द्रित रहता है, किन्तु जो ध्यान 'पर'-केन्द्रित होता है अथवा जिसका विषय बाह्य जगत् से सम्बन्धित तथ्य होता है, चाहे फिर वे व्यक्ति हों या वस्तुएँ हों, वह ध्यान वस्तुतः ध्यान नहीं है, क्योंकि वह हमारी चेतना को उद्वेलित करता है। उसमें अनुकूल के प्रति राग और प्रतिकूल के प्रति द्वेष का जन्म होता है। राग और द्वेष की वृत्तियाँ पुनः आवेगों को या कषायों को जन्म देती हैं। कषायों की उपस्थिति से चेतना का समत्व भंग हो जाता है और चित्त उद्वेलित बना रहता है। यही कारण है कि जैन आचार्यों ने आर्त ध्यान और रौद्र ध्यान को ध्यान के रूप में वर्गीकृत करते हुए भी साधना की दृष्टि से उन्हें त्याज्य ही माना।
यद्यपि जैन आगम साहित्य में और परवर्ती ग्रन्थों में इन दोनों ध्यानों के स्वरूप, लक्षण, विषय, आलम्बन, स्वामी (कर्ता) आदि की विस्तृत चर्चा हुई है, किन्तु उसका कारण यह है कि इन अशुभ ध्यानों के स्वरूप समझकर ही इनका निराकरण किया जा सकता है। अत: जैन परम्परा के ग्रन्थों में ध्यान की जो चर्चा हुई है उसमें शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार के ध्यानों की चर्चा मिलती है। आर्त और रौद्र ध्यान अशुभ ध्यान हैं। उनमें प्राणी की स्वाभाविक रूप से प्रवृत्ति पाई जाती है, जबकि धर्म ध्यान शुभ ध्यान है, वह साधना का प्रथम चरण है। ध्यान साधना के क्षेत्र में अन्तिम ध्यान तो शुक्ल ध्यान ही माना गया है। यह शुभ और अशुभ से परे शुद्ध स्वरूप का ध्यान है। ___ आर्त और रौद्र ध्यान के विषय बाह्य होते हैं। जबकि धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान के विषय परवस्तु न होकर स्व-स्वरूप ही होता है। यद्यपि धर्म ध्यान के परहित और करुणा से युक्त होने के कारण किसी दृष्टि से उसे पर से सम्बन्धित माना जा सकता है, किन्तु मूलत: वह आत्मनिष्ठ ही होता है। शुक्ल ध्यान शुद्ध
भूमिका 11
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