Book Title: Dhyanashatak
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Kanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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वे इसका तार्किक खण्डन भी नहीं करते हैं, सम्भवत: उन्हें इसमें यही कठिनाई प्रतीत होती है कि, चाहे इसे नियुक्तिकार की कृति माने या भाष्यकार की कृति माने, दोनों ही स्थितियों में यह श्वेताम्बर परम्परा की कृति सिद्ध होगी। जबकि वे इसे स्पष्टतः नियुक्तिकार और भाष्यकार की कृति नहीं मानते हैं, किन्तु यह भी सिद्ध नहीं कर पाते हैं कि यह किसी अन्य आचार्य की कृति है और वह कौन हो सकता है? केवल इस आधार पर कि आचार्य हरिभद्र ने अपनी टीका में और आचार्य मलधारी हेमचन्द्र ने अपने टिप्पण में इसे जिनभद्रगणि की कृति नहीं बताया है- इसे जिनभद्र की कृति मानने से इनकार कर देना समुचित नहीं है, क्योंकि दोनों ने उनके सामने जो मूलपाठ था उसी पर टीका या टिप्पण लिखे। जब मूल में नामोल्लेख वाली गाथा उनके समक्ष थी ही नहीं तो वे किस आधार पर कर्ता के नाम का उल्लेख करते और जब जिनभद्रगणि की अपनी किसी भी कृति में अपना नाम देने की प्रवृत्ति ही नहीं रही तो फिर इस कृति में अपना नाम कैसे देते? ।
पण्डित बालचन्द्रजी ने इस ग्रन्थ को जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण की कृति मानने से जो इनकार किया है, उसका सम्भवतः मुख्य कारण यही है कि वे इसे किसी श्वेताम्बर आचार्य की कृति मानना नहीं चाहते हैं, किन्तु उनका यह मन्तव्य इसलिये सिद्ध नहीं हो सकता कि कृति मूलत: अर्धमागधी भाषा में ही लिखी गई है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के पूर्ववर्ती एवं परवर्ती जो भी दिगम्बर आचार्य हुए हैं उन सब ने शौरसेनी प्राकृत में ही अपने ग्रन्थ लिखे हैं, जबकि यह ग्रन्थ पूर्णत: अर्धमागधी में ही पाया जाता है। इस पर महाराष्ट्री प्राकृत का प्रभाव भी प्रायः अधिक नहीं देखा जाता है। वैसे अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत में जो भी लेखन हुआ है वह प्रमुखतः श्वेताम्बर आचार्यों के द्वारा ही हुआ है, अत: इतना सुनिश्चित है कि यह ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा में ही निर्मित हुआ है । पुनः आचार्य हरिभद्र ने इस पर जो टीका लिखी है, वह भी मूलतः श्वेताम्बर परम्परा की है, अतः ग्रन्थकर्ता के रूप में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण को स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं आती है।
प्राचीन जैन आचार्यों की यह प्रवृत्ति रही है कि वे अपनी किसी रचना में अपने नाम का उल्लेख नहीं करते थे, यही कारण है कि विशेषावश्यक भाष्य, जीतकल्प भाष्य, विशेषणवती आदि ग्रन्थों में जिनभद्रगणि ने भी कहीं भी, अपने नाम का उल्लेख नहीं किया है, किन्तु इस आधार पर विशेषावश्यक भाष्य, जीतकल्प भाष्य, विशेषणवती आदि को किसी अन्य की कृति नहीं माना
16 ध्यानशतक
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