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१५. जिनयज्ञकल्प - प्राचीन जिनप्रतिष्ठाशास्त्रोंको देखकर आशाधरजीने युगके अनुरूप यह प्रतिष्ठाशास्त्र रचा था। यह नलकच्छपुर के निवासी खण्डेलवाल वंशके भूषण अल्हण के पुत्र पावासाहुके आग्रहसे विक्रम संवत् १२८५ में आश्विन शुक्ला पूर्णिमाको प्रमारवंशभूषण श्री देवपाल राजाके राज्यमें नलकच्छपुर में नेमिनाथ जिनालय में रचा गया था। जैन ग्रन्थ उद्धारक कार्यालय से संवत् १९७४ में प्रतिष्ठासारीद्वारके नामसे हिन्दी टीका साथ इसका प्रकाशन हुआ था। अन्तिम सन्धिमें इसे जिनयज्ञकल्प नामक प्रतिष्ठा सारोद्धार संज्ञा दी है। उसके अन्त में प्रशस्ति है जिसमें उक्त रचनाओंका उल्लेख है ।
प्रस्तावना
अतः ये पन्द्रह रचनाएँ वि. सं. १२८५ तक रची गयी थीं । सागार धर्मामृत टीकाकी प्रशस्तिमें इस जिनयज्ञकल्पका जिनयज्ञकल्प दीपक नामक टीकाके साथ उल्लेख है । अतः यह टीका १२८५ के पश्चात् ही रची गयी है क्योंकि जिनयज्ञकल्पकी प्रशस्तिमें इसका निर्देश नहीं है ।
१६. विषष्टि स्मृतिशास्त्र इसका प्रकाशन मराठी भाषाकी टीकाके साथ १९३७ में माणिकचन्द जैन ग्रन्थमालासे उसके ३६वें पुष्पके रूपमें हुआ है । इसमें आचार्य जिनसेन और गुणभद्रके महापुराणका सार है। इसको पढ़ने से महापुराणका कथाभाग स्मृतिगोचर हो जाता है। शायद इसी से इसका नाम त्रिष्टि स्मृतिशास्त्र रखा है । चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नो नारायण, नौ प्रतिनारायण, नौ बलभद्र ये त्रेसठ इलाका पुरुष होते हैं ये सब तीर्थंकरोंके साथ या उनके पश्चात् उन्होंके तीर्थ में होते हैं। आशापरजी ने बड़ी
कुशलतासे प्रत्येक तीर्थंकर के साथ उसके कालमें हुए चक्रवर्ती आदिका भी कयन कर दिया है। जैसे प्रथम चालीस श्लोकों में ऋषभ तीर्थंकर और भरत चक्रवर्ती आदिका कथन है। दूसरेमें सात इलोकोंमें अजितनाथ तीर्थंकर और सगर चक्रवर्तीका कथन है । ग्यारहवें में दस श्लोकों में श्रेयांसनाथ तीर्थंकर के साथ अश्वग्रीव प्रतिनारायण, विजय बलदेव और त्रिपृष्ठ नारायणका कथन है । इसी तरह बीसवें में इक्यासी श्लोकों में मुनिसुव्रतनाथ तीर्थंकरके साथ राम, लक्ष्मण और रावणकी कथा है। बाईसवें में सौ श्लोकों में नेमिनाथ तीर्थंकर के साथ कृष्ण, जरासन्ध और ब्रह्मदत्त चक्रीका कथन है । अन्तिममें पचास श्लोकोंमें भगवान् महावीरके पूर्वभव वर्णित हैं ।
इसकी अन्तिम प्रशस्ति में इसकी पंजिकाका भी निर्देश है। इसी के साथ मुद्रित है। यह पण्डित जाजाककी प्रेरणासे संवत् पुत्र जेतुमिदेव के अवन्तीमें राज्य करते हुए रचा गया है। निर्देश नहीं है।
अर्थात् इसपर पंजिका भी रची थी जो १२९२ में नलकच्छपुरमें राजा देवपालके इसकी प्रशस्ति में किसी अन्य नवीन रचनाका
१७. सागारधर्मामृत टीका-इस टीकाके साथ सागार धर्मामृतका प्रथम संस्करण वि. सं. १९७२ में माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बईके दूसरे पुष्पके रूपमें प्रकाशित हुआ था। इसकी रचना वि. सं. १२९६ में नलकण्ठपुर में नेमिनाथ चैत्यालय में जैतुगिदेवके राज्य में हुई। इसका नाम भव्यकुमुदचन्द्रिका है। पोरवा वंशके समुद्धर श्रेष्ठी के पुत्र महीचन्द साहूकी प्रार्थनासे यह टीका रची गयी और उन्होंने इसकी प्रथम पुस्तक लिखी ।
१८. राजीमती विप्रलम्भ - इसका निर्देश वि. सं. १३०० में रचकर समाप्त हुई अनगार धर्मामृतकी टोका प्रशस्ति में है। इससे पूर्वको प्रशस्ति में नहीं है अतः यह खण्डकाव्य जिसमें नेमिनाथ और राजुलके वैराग्यका वर्णन था स्वोपज्ञ टीकाके साथ १२९६ और १३०० के मध्य में किसी समय रचा गया । यह अप्राप्य है ।
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१९. अध्यात्मरहस्य – अनगार धर्मामृत टीकाको प्रशस्ति में ही राजीमती विप्रलम्भके पश्चात् इसका उल्लेख है । यह पिता के आदेशसे रचा गया था। यह प्रसन्न किन्तु गम्भीर था । इसे पढ़ते ही अर्थबोध हो जाता था । तथा उसका रहस्य समझने के लिए अन्य शास्त्रोंकी सहायता लेनी होती है; जो योगाभ्यासका प्रारम्भ करते उनके लिए यह बहुत प्रिय था। किन्तु यह भी अप्राप्य है ।
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