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प्रस्तावना
३९ क्लिष्ट हो गयी है। यदि उन्होंने उसपर टीका न रची होती तो उसको समझना संस्कृतके पण्डितके लिए भी कठिन हो जाता तथा उस टीकामें उन्होंने जो विविध ग्रन्थोंसे उद्धरण दिये हैं और विविध आगमिक चर्चाएँ की है उन सबके बिना तो धर्मामृत भी फीका ही रहता। २. जीवन परिचय
आशाधरने अपनी तोन रचनाओंके अन्त में अपनी प्रशस्ति विस्तारसे दी है। सबसे अन्तमें उन्होंने अनगार धर्मामतकी भव्यकुमुदचन्द्रिका टीका रची थी। अतः उसमें पूर्ण प्रशस्ति है। उसके अनुसार उनके पिताका नाम सल्लक्षण, माताका श्रीरत्नी, पत्नीका सरस्वती और पुत्रका नाम छाहड़ था। वे बघेरवाल वैश्य थे। माडलगढ़ ( मेवाड़ ) के निवासी थे। शहाबुद्दीन गोरीके आक्रमणसे त्रस्त होकर अपने परिवारके साथ मालवाकी राजधानी धारामें आकर बस गये थे। वहां उन्होंने पण्डित महावीरसे जैनेन्द्र व्याकरण और जैनन्याय पढ़ा।
३. रचनाओंका परिचय
१. प्रमेयरत्नाकर-इसकी प्रशंसा करते हुए इसे स्याद्वाद विद्याका विशद प्रसाद कहा है। यह तर्कप्रबन्ध है, जिससे निर्दोष पद्यामृतका प्रवाह प्रवाहित होता है अर्थात् पद्योंमें स्याद्वाद विद्या गुम्फित तर्कशास्त्रपर यह ग्रन्थ रचा गया था। किन्तु यह अप्राप्य है । अतः इसके सम्बन्धमें विशेष कथन शक्य नहीं है।
२. भरतेश्वराभ्युदयकाव्य-इसके प्रत्येक सर्गके अन्तिम वृत्तमें सिद्धि शब्द आनेसे इसे सिद्धयंक कहा है । इस काव्यपर स्वोपज्ञ टीका भी थी। यह काव्य कविने अपने कल्याणके लिए रचा था। इसके दोएक पद्य अनगार धर्मामृतकी टीकामें उद्धृत हैं। उनसे प्रतीत होता है यह अध्यात्मरससे परिपूर्ण था। नवम अध्यायके सातवें श्लोककी टोकामें लिखा हैएतदेव च स्वयमप्यन्वाख्यं सिद्धयङ्कमहाकाव्ये यथा
परमसमयसाराभ्याससानन्दसर्पसहजमहसि सायं स्वे स्वयं स्वं विदित्वा । पुनरुदयदविद्यावैभवाः प्राण चार
स्फुरदरुणविडम्भा योगिनो यं स्तुवन्ति ।। काव्यके नामसे तो ऐसा प्रतीत होता है कि उसमें भरत चक्रवर्तीकी मोक्षप्राप्तिका वर्णन रहा हो ।
३. पंजिका सहित धर्मामृत-तीसरी रचना है धर्मामृत । उसके दो भाग हैं-अनगार और सागार । इनमें क्रमसे जैन मुनियों और श्रावकोंके आचारका वर्णन है। इनका प्रकाशन हो चुका है तथा इस संस्करणमें अनगार प्रथमबार पंजिका सहित प्रकाशित हो रहा है। इसके पश्चात् प्रथमबार पंजिका सहित सागार प्रकाशित होगा। ऐसा प्रतीत होता है धर्मामृतके साथ ही उसकी पंजिका रची गयी थी। क्योंकि प्रशस्तिमें इसके सम्बन्धमें लिखा है
योऽहंदवाक्यरसं निबन्धरुचिरं शास्त्रं च धर्मामतं
निर्माय न्यदधान्मुमुक्षुविदुषामानन्दसान्द्रे हृदि ।। इसकी व्याख्या करते हुए आशाधरजीने 'अर्हद्वाक्यरसं' का अर्थ जिनागमनिर्यासभूत और 'निबन्धरुचिरं' का अर्थ 'स्वयंकृतज्ञानदीपिकाख्यपञ्जिकया रमणीयं' किया है अर्थात् धर्मामत जिनागमका सारभूत है और स्वोपज्ञ ज्ञानदीपिका पंजिकासे रमणीय है । पंजिकाका लक्षण है 'पदभञ्जिका' । अर्थात् जिसमें केवल कुछ पदोंका विश्लेषण होता है, पूर्ण श्लोककी व्याख्या नहीं होती, उसे पंजिका कहते हैं। अनगार धर्मामृतकी पंजिकाके प्रारम्भमें कहा है
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