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विभिन्न धर्म - संघों एवं धर्म - परम्पराओं का एक आचार्य हो, वह सब साधुओं का नेतृत्व करे । यह क्यों ? इसीलिए कि पुराने अलगअलग चौके-चूल्हे की परम्परा अब गल - सड़ गई है, उसको अब जरूरत नहीं रही है, पर पुरानी परम्पराओं से चिपके रहने वाले कुछ बुजुर्ग लोग कहते हैं - क्या पहले अलग - अलग परम्पराएँ नहीं थीं? पहले भी तो आचार्य अलग - अलग होते थे, क्या हमारे पूर्वज मूर्ख थे? इन सब तर्कों को लेकर फिजूल का हल्ला मचाया करते हैं। पर, वे यह सोचने का कष्ट नहीं करते कि पहले उनकी उपयोगिता थी, अखिल भारतीय स्तर पर संघ फैला हुआ था, और भारत के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक साधु विचरते रहते थे। यातायात के, संचार के साधन भी सुलभ नहीं थे, दूर के समाचार ठीक समय पर मिल नहीं पाते थे। तब एक आचार्य के लिए, उनको संभलना दुष्कर कार्य था। आज स्थिति बदल गई है । आज तो यातायात भी इतना सुगम हो गया है कि, आदमी सुबह यहाँ से वायुयान में बैठकर संध्या को भोजन सूदर अमरीका तक में कर लेता है। प्रतिदिन सुबह अखबार पढ़ते ही, सारी दुनिया हमारे साममे खड़ी हो जाती है। आज तो किसी भी छोटीसी घटना की खबर चन्द - मिनिटों में सारे विश्व में फैल जाती है, अतः आज के लिए ये अलग - अलग गच्छ या संप्रदाय आदि की परम्पराएँ उपयोगी नहीं हैं। आज तो सारा संसार एक होने की तैयारी कर रहा है। संसार के राष्ट्र अपना एक विश्व - संघ बनाना चाहते हैं, पर हमारे कुछ लोग अपनी विभिन्न असामयिक एवं क्षुद्र परम्पराओं को सुरक्षित रखने के लिए हाथ-पैर मार रहे हैं । आज परम्पराओं ने मोह एवं मूर्छा का रूप ले लिया है। हमारी वृत्ति यह हो रही है कि, जो हमारा है वही अच्छा है और दूसरा सब बुरा है । इस साम्प्रदायिक दुष्वृत्ति के कारण वे अपने सम्प्रदाय की गल्तियों को भी दबाने और छुपाने की कोशिश करते हैं । मैं ऐसे साम्प्रदायिक वृत्ति वाले हर आदमी को चुनौती देकर कह सकता है, कि वे अपने सीने पर हाथ रखकर देखें, कि उन्होंने अपने सम्प्रदाय की गन्दगी को कितने फूल चढ़ाए हैं ? समय आने पर इनकी पोलें खुले बिना न रहेंगी। आज के युग में जागरण की तीव्र लहर आ रही है । अतः ये बातें अधिक देर चलनेवाली नहीं
धर्म और परम्पराएं:
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