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"जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे ।
एमं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जो ॥" राजर्षि आगे कहते हैं, युद्ध करना ही है, तो स्वयं अपने से करो अर्थात अपने मन के विकारों से महासमर करो। बाह्य युद्धों से, अपना और दूसरों का रक्त बहाने से क्या होना-जाना है ? यह बाहर की विजय, विजय नहीं, वस्तुतः पराजय ही है ।
___ भारतीय - वाङमय में प्रस्तुत विषय से सम्बन्धित उदाहरणों की कोई कमी नहीं है। एक - से - एक बढ़ - चढ़ कर उदाहरण हैं। किन्तु अन्ततः उन सब का मूल स्वर एक ही हैआत्म - विजय । इसीको महान् सम्राट अशोक धर्म-विजय कहता है । धर्म विजय के बिना मनुष्य बाहर का महान् विजेता हो कर भी वस्तुतः एक क्षद्र दास ही है। विकारों का दास-गुलाम दुनियादारी के दासों से भी, गुलामों से भी नीचाति-नीच है।
अतः मैंने जो प्रारम्भ में कहा है-मानव जीवन का लक्ष्य क्या है ? उत्तर दिया गया-विजय । और, वह विजय बाहर की नहीं, विकार - विजय है, धर्म - विजय है, आत्म - विजय है। यह विजेता साधरण विजेता नहीं है, अपितु विश्व-विजेता है, त्रिलोकविजेता है। इस आत्म - विजेता की देश .. काल आदि की कोई क्षुद्र सीमा नहीं है, यह अनन्त है। अतः कहा है मनीषियों ने
"मनो विजेता, जगतो विजेता" भारतीय - जीवन में यों तो विजय के रूप में अनेक विजयपर्व हैं, किन्तु मेरी दृष्टि में दो विजय - पर्व मुख्य हैं-एक विजय पर्व है, पर्युषण और दूसरा है दशहरा अर्थात् रावण के अन्याय - अत्याचार पर राम के न्याय - सदाचार की विजय ।
पर्युषण आध्यात्मिक विजय का पर्व है। इसे मैत्री - पर्व भी कहते हैं। आप जानते हैं कि अन्तर्मन में मैत्री - भाव की ज्योति तभी जगती है, जब क्रोधादि विकारों पर यथार्थ विजय प्राप्त कर ली जाती है। प्रायः देखा जाता है, कि इधर क्रोधादि विकार भी मन में पनप रहे हैं और उधर मैत्री - पर्व पर्युषण भी मना रहे हैं । यह तो एक प्रकार का अपमानजनक उपहास है। यथार्थ में १०२
चिन्तन के झरोखे से :
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