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महावीर उपसर्गों के भयंकर युद्ध में कभी एक कदम भी पीछे न हटने वाले गंध - हस्ती के समान अग्रवीर रहे हैं।
वृषभ के समान पराक्रमी : जिस प्रकार महान् वृषभ अपने पूरे पराक्रम के साथ रथ आदि के भार को वहन करता है, फलत : धुरन्धर का गौरव पद प्राप्त करता है, उसी प्रकार भगवान् महावीर भी तप - त्याग आदि साधना के भार को एवं भयंकर उपसर्गों को प्रसन्नता से वहन करने वाले महान् पराक्रमी वीर रहे हैं।
सिंह के समान दुद्धर्षः जैसे वन का राजा सिंह भीषण वन में निर्भय विचरण करता है, भयभीत होकर इधर - उधर या वापिस भागने का प्रयत्न नहीं करता है, उसी प्रकार महावीर भी साधारण उपसर्ग तो क्या, अपितु देव - दानवों द्वारा किए गए भयंकर उपसर्गों से भी सर्वथा भय - मुक्त रहे हैं। उन्होंने भयाकुल होकर कभी अपना साधना - पथ नहीं बदला।
_मेरु के समान निष्कंप : पर्वतराज मेरु प्रलय के युग में भी निष्कंप रहता है। भगवान् महावीर की निष्कंपता भी इसी भाँति परमोत्तम कोटि की है।
समुन्न सम गम्भीर : जिस प्रकार जलाशयों में समुद्र की गम्भीरता प्रसिद्ध है-हजारों - हजार नदियों का प्रतिक्षण जल प्रवाह पाकर भी वह मर्यादाहीन नहीं होता है, इसी प्रकार भगवान् महावीर भी मान - अपमान आदि के भीषण प्रवाहों में कदापि मर्यादाहीन अर्थात् क्षुद्र नहीं हुए।
कि अधिकम भगवान् चन्द्र के समान सौम्य, सूर्य के समान तेजस्वी, परीक्षित उत्तम स्वर्ण के समान कान्तिमान सौन्दर्य के धारक, पृथ्वी की तरह समस्त स्पर्शों को सहन करने वाले सर्वसह अर्थात् क्षमाशील और यथोचित घृतादि की आहुति प्राप्त अग्नि के समान प्रदीप्त थे महाप्रभु महावीर ! अर्थात् उनकी दीप्तिमत्ता भीषण उपसर्गों में भी क्षीण नहीं हुई।
उपर्युक्त ये उपमाएँ हैं, जो भद्रवाह स्वामी ने शब्द - बद्ध की है। आखिर भद्रबाहु की भी एक सीमा है । लहराते गर्जते सागर को एक सीमित घट में भर लेना जैसे असंभव है. वैसे ही महावीर
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चिन्तन के झरोखे से।
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